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सिद्धान्तों की युग की नई शैली में प्रशस्त व्याख्या की, आत्मलक्षी अध्यात्मपरक साहित्य के सृजन से बुद्धिजीवियों को प्रबुद्ध किया, प्रेक्षा-ध्यान के रूप में व्यक्ति की संकल्प-शक्ति जगाने व चेतना को मुखरित करने की प्रेरणा दी, स्वयं स्थिर योग की साधना कर वीतरागता की
ओर बढ़ने का आदर्श प्रस्तुत किया और इन सबके उपरांत आचार्यश्री के प्रति संपूर्णतः समर्पित होकर उनकी आज्ञा, अनुज्ञा, संकेतों का परिपूर्ण पालन किया व संघ के युगान्तरकारी परिवर्तन में आचार्यश्री को महान् योगदान दिया, जिसके फलस्वरूप न केवल तेरापंथ धर्मसंघ में, अपितु अन्यान्य धर्म सम्प्रदायों में भी महान् दार्शनिक, तत्त्वशोधक, प्रबुद्ध चिंतक, साहित्य-सृष्टा के रूप में उनकी प्रख्याति हुई । तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्यश्री के बाद संभवतः उन्हें चतुर्विध संघ से सबसे अधिक सम्मान मिला और ऐसी स्थिति में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि युवाचार्य की नियुक्ति से उन्हें कोई अधिक सम्मान नहीं मिला, इससे तो उन्हें जो अब तक सम्मान मिला था, उसका ऐतिहासिक एवं वैधानिक स्वीकरण मात्र हुआ। ऐसे युवाचार्य को पाकर संघ का ही गौरव और सम्मान बढ़ा है और संभवतः इतिहास में पहली बार ऐसा परिलक्षित हुआ कि पद से भी व्यक्ति बड़ा होता है। युवाचार्य महाप्रज्ञ पद-प्राप्ति के पूर्व भी सम्मानित थे और इसलिए यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि उनकी नियुक्ति से युवाचार्य पद का जितना सम्मान बढ़ा है, उतना उनका नहीं। इसके पूर्व कई साधु तो आचार्य बनने के पूर्व तक प्रकाश में नहीं आ सके। इस दृष्टि से यह नियुक्ति अपने आप में विलक्षण है।
इस प्रसंग की महत्ता इस तथ्य से भी प्रकट होती है कि इस घोषणा से सारे धर्मसंघ व इतर सम्प्रदायों में सर्वत्र हर्ष प्रकट किया गया। इस बार मर्यादा-महोत्सव पर अधिकांश वयोवृद्ध व अपने समय के प्रखर एवं बहुमानी साधु, कई कारणों से उपस्थित नहीं हो सके, पर घोषणा के बाद उन्होंने जो प्रशस्तिपूर्ण प्रतिक्रियाएं व्यक्त की, श्रद्धा-उद्गार भेजे, उस पर स्वयं आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री को आह्लादपूर्ण आश्चर्य हुआ। तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में इतनी सार्वजनिक एवं सर्वमान्य सुखद प्रतिक्रिया पहले कभी व्यक्त नहीं हुई। संघ के साधु भी छद्मस्थ ही तो होते हैं व उन्हें रागद्वेष, ईर्ष्या सता सकते हैं। पूर्व में कुछ ऐसे प्रसंगों पर कुछ साधु रुष्ट व असंतुष्ट भी हुए, हालाँकि उनकी संख्या नगण्य ही रही।
तेरापंथ के चतुर्थ अधिशास्ता श्रीमद् जयाचार्य ने जब संवत् १९२० में मघराज जी स्वामी को युवाचार्य घोषित किया, तब उनके समकक्ष योग्यता वाले छोगजी चतुर्भुज जी आदि ने तो संघ तक से अपना संबंध विच्छेद कर दिया, व विरोध में जुट गए, जिससे श्री जयाचार्य को उनका विरोध निरस्त करने में पर्याप्त श्रम व शक्ति लगानी पड़ी। इसके पूर्व व पश्चात् भी यत्र-तत्र ऐसे प्रसंगों पर असंतोष, ईर्ष्या, द्वेष के कुछ क्षणिक स्फुलिंग उछले, हालांकि आत्मानुशासन से प्रेरित श्रमण-श्रमणी वृन्द उससे प्रभावित नहीं हुआ, व सारे स्फुलिंग आत्मसाधना के शीतल जल में स्वयं तिरोहित हो गये। इस तार्किक एवं प्रचार के युग में जब कि चारों ओर पद-लिप्सा की ज्वाला से सारा विश्व त्रस्त है, व अधिकांश धर्मसंघ भी उससे अछूते नहीं रह पाए हैं, तब लगभग सात सौ साधु-साध्वी-संघ के अनुशास्ता, व लाखों-लाखों अनुयायियों के श्रद्धानायक के रूप में, युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का मनोनयन,
तुलसी-प्रज्ञा