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________________ चतुर्विध संघ द्वारा सहज रूप से हर्षातिरेक के वातावरण में स्वीकार करना तेरापंथ धर्मसंघ की ही नहीं, विश्व इतिहास की अलौकिक घटना कही जा सकती है। यह सब आचार्यश्री की दूरदर्शितापूर्ण सूझबूझ एवं युवाचार्यश्री की विशिष्ट योग्यताओं का ही परिणाम है व संघ इस बात से निश्चित है कि युवाचार्यश्री की विशिष्टताओं का नेतृत्व-रूप में जो लाभ मिलेगा, वह सभी दृष्टियों से इतिहास में अपूर्व व अविस्मरणीय होगा। इस प्रसंग की एक विशेषता यह भी है कि अब तक जिन समर्थ आचार्यों ने अपने उत्तराधिकारी को चुना, वे उनके अनुकरण मात्र ही करने वाले थे। आचार्यश्री स्वयं इसके अपवाद अवश्य रहे और इसका कारण उनकी छोटी आयु भी था, पर आचार्यश्री ने परिपक्व अवस्था के युवाचार्य जी का जो मनोनयन किया, उसमें यह आधार नहीं बन पाया । यह सही है कि आचार्यश्री ने तेरापंथ धर्मसंघ की व्यवस्था में जो युगान्तरकारी परिवर्तन किए उसमें महाप्रज्ञ का प्रारंभ से शतप्रतिशत समर्थन, सहयोग, व योगदान रहा और उन्होंने कभी किसी अवसर पर आचार्यश्री से भिन्न अनुभूति नहीं की और सदा उनसे अभिन्न अद्वैतात्मक स्थिति में रहे, पर यह भी निश्चित कहा जा सकता है कि युवाचार्यश्री कई दृष्टियों से आचार्यश्री के अनुगामी न होकर, पूरक भी हैं। यह दोनों व्यक्तित्वों की निजता है, जो उनके व्यवहार व कार्य-शैली में स्पष्ट परिलक्षित होती हैं। आचार्यश्री ६५ वर्ष की अवस्था में भी सदा उत्फुल्ल रहने वाले हंसते-खिलते सुवासित गुलाब के फूल की तरह हैं, जिनके मानस पर अवस्था अपना विशेष प्रभाव छोड़ने में असमर्थ रही हैं। गत तीन चार दशाब्दियों में जब-जब उनके दर्शन सेवा करने का अवसर मिला, तब-तब मैंने उनके चेहरे पर तारुण्य भरी मुस्कान व प्रफुल्लता के ही दर्शन पाए। भयंकर विरोध व विषादपूर्ण परिस्थितियों में भी उनका असीम आशावाद न्यून नहीं हो पाया, उनकी प्रसन्नता को मिटा न सका, वे उस सदाबहार उद्यान की तरह रहे जिसके कण-कण में नई छटा, नया रंग, नई सुवास सतत विद्यमान रहती है और यही कारण है अबोध बच्चे व अनभिज्ञ ग्रामीण से लेकर बड़े-बड़े सत्ताधीश एवं विद्वज्जन उनसे समान रूप से आकर्षित रहे और सभी क्षेत्रों में इतनी लोकप्रियता आज तक किसी धर्माचार्य को नहीं मिली। इसके ठीक विपरीत युवाचार्यश्री के चेहरे पर मैंने सदा ही गांभीर्य और सात्त्विक तटस्थता का ही भाव देखा- उनको न तो मैंने कभी खुलकर हंसते देखा, न उनके चेहरे पर कभी उन्मुक्त एवं व्यापक मुस्कान देखी। अगाध पांडित्य के साथ उन्हें अहं तो छू नहीं पाया, पर गांभीर्य अछूता न रह सका। तटस्थता व अनासक्त भाव के साथ-साथ सहज उदासीनता ने उनमें स्पष्ट अभिव्यक्ति पाली । युवाचार्यश्री शांत पद्म-सरोवर के शरद् ऋतु के श्वेत कमल की तरह निलिप्त और साम्ययोगी हैं। आचार्यश्री आज भी युवक की तरह उत्साही एवं प्रसन्न-वदन रहते हैं, जब कि युवाचार्यश्री अपने भर यौवन में परिपक्व व्यक्तित्व लिए हुए लगते थे। आचार्यश्री की सहज मुस्कान के पीछे लोक के सारे प्राणियों के प्रति करुणा व समता भाव छलक कर बाहर आता प्रतीत होता है, और युवाचार्यश्री की तटस्थ वृत्ति में प्राणी मात्र की वेदना उनके अंतरतम में गहरी पैठ कर स्वपर आत्म-कल्याण की भावना में रूपान्तरित हो जाना चाहती है और विभाव से स्वभाव में जाने की प्रक्रिया का यह संघर्ष उनके चेहरे पर बरबस अपनी झलक छोड़ देता है । एक ही लक्ष्य के पथिक दोनों के मार्ग श्रेय होने पर भी भिन्न-भिन्न हैं । खण्ड ४, अंक ७-८
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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