SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ I छोर पकड़ लिया । धब्बों वाला भाग मुनि नथमल जी को मिला । वे थोड़े उदास हुए, परन्तु जब दोनों भाग धुलकर पुनः हमारे पास आये तब हम पहचान ही नहीं पाये कि धब्बों वाला भाग कौनसा था ? मुनि तुलसी अर्थ करते सं० १९८६ में हम दोनों अभिधान चिन्तामणि कोश कंठस्थ कर रहे थे । आचार्यश्री ने फरमाया—मध्याह्न में प्रतिदिन एक श्लोक सिंदूर प्रकर (सूक्ति मुक्तावलि) का भी याद किया करो | हम वैसा ही करने लगे । कुछ श्लोक कंठस्थ हो जाने के पश्चात् हमें आदेश हुआ कि सायं प्रतिक्रमण के पश्चात् तुम दोनों श्लोकों का गान किया करो और तुलसी अर्थ किया करेगा । बाल्यावस्था के कारण उस समय हमारा स्वर महीन और मधुर था । आचार्यश्री के सम्मुख खड़े होकर हम दोनों उपस्थित जन समूह में प्रतिदिन चार श्लोकों का गान करते और हमारे अध्यापक मुनि तुलसी उनका अर्थ किया करते । एक शिकायत मुनि तुलसी हमें काफी कड़े अनुशासन में रखते थे । इधर-उधर घूमने की छूट तो देते ही नहीं थे, परस्पर बात भी नहीं करने देते थे । हम दोनों ने कालुगणी के पास शिकायत करने का निर्णय किया। रात्रि में जब आचार्यश्री सोने की तैयारी कर रहे थे, तब हम गये और पास जाकर वन्दन किया । आचार्यश्री ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा - "बोलो क्यों आये हो ?" हम दोनों ने कुछ संकुचाते और कुछ साहस करते हुए कहा - "तुलसीराम जी स्वामी हमें बात भी नहीं करने देते, बहुत कड़ाई करते हैं ।" आचार्यश्री ने पूछा--"यह सब वह तुम्हारी पढ़ाई के लिए ही करता है या अन्य किसी कारण से ?" हमने कहा - " करते तो पढ़ाई के लिए ही हैं । " आचार्यश्री बोले – “तब फिर क्या शिकायत रह जाती है ?" " इस विषय में तो वह जैसा चाहेगा वैसा ही करेगा । तुम्हारी कोई बात नहीं चलेगी । " हम दोनों अवाक् थे । न कुछ कह पाये और न उठकर ही जा पाये । आचार्यश्री ने गुरुकुल में पढ़ा करता था । अन्य छात राजकुमार को राजा के पास ले जा रहे और गठरी राजकुमार के सिर पर उतरवा दी गई । वे सब राजसभा व्यवहार कैसा रहा ?" आचार्य ने राजकुमार से भी पूछा - " आचार्य जी ने राजकुमार ने हमें एक कहानी सुनाते हुए कहा- राजा का पुत्र भी वहाँ पढ़ते थे । पढ़ाई सम्पूर्ण होने पर आचार्य थे । राजधानी के बाजार में उन्होंने कुछ गेहूं खरीदे रख दी । कुछ दूर तक ले चलने के पश्चात् वह गठरी में पहुंचे । राजा ने आश्चर्य से पूछा - "राजकुमार का कहा- -: " बहुत अच्छा, बहुत विनययुक्त ।” राजा ने तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया ?" सकुचाते हुए तो बहुत अच्छा व्यवहार किया, परन्तु आज का व्यवहार उससे में इन्होंने मेरे से भार उठवाया ।” राजा ने खिन्न होकर आचार्य से इसका कारण पूछा । ३६६ तुलसी- प्रज्ञा कहा - "इतने वर्षों तक भिन्न था । आज बाजार
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy