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________________ "बाल-सखित्वमकारणहास्यं स्त्रीषु विवादमसज्जन-सेवा । गर्दभयानमसंस्कृत-वाणी, षट्सु नरो लघुतामुपयाति ॥" आचार्यश्री ने हमें शिक्षा देते हुए कहा-"बच्चे के साथ मित्रता, अकारण हास्य, स्त्रियों के साथ विवाद, दुर्जन की संगति, गधे की सवारी और अशुद्ध वाणी-इन छह बातों से मनुष्य छोटा बन जाता है।" शिक्षा के बीच में ही आचार्यश्री ने हमसे प्रश्न किया-- "तुम लोग बड़ा बना चाहते हो या छोटा ?" हम दोनों ने एक साथ उत्तर दिया--"बड़ा" आचार्यश्री ने तब हमारी ओर एक विचित्र दृष्टि से देखते हुए कहा-"बड़ा बनना चाहते हो तो इन बातों से बचना चाहिए।" सहज भाव से दी गई उक्त शिक्षा हमारे अन्तरंग में उतरती गई और हम शीघ्र ही अकारण हास्य के उस स्वभाव से मुक्त हो गये । पारस्परिक स्पर्धा गहरी मित्रता के साथ-साथ हम दोनों में स्पर्धा भी चलती रहती थी। खड़िया से पट्टी कौन पहले लिखता है, श्लोक कौन शीघ्र याद करता है, आचार्यश्री की सेवा में कौन पहले पहुंचता है, मुनि तुलसी का कथन कौन पहले कार्यान्वित करता है-ये हमारी स्पर्धा के विषय हुआ करते थे। कभी-कभी अन्य विषयों में भी स्पर्धा हो जाया करती थी। सं० १९८६ में एक बार श्री डूंगरगढ़ में कालूगणी की सेवा में मुनि नथमल जी बैठे थे । आचार्यश्री ने अपने "पु?" से भर्तृहरि का नीतिशतक निकाल कर उन्हें दिया। उन्होंने आकर मुझे दिखाया तो मैंने भी गुरुदेव से उसकी माँग की। एक बार तो उन्होंने फरमाया कि "पु?" में एक ही प्रति थी, वह दे दी गई, अब तुम्हारे लिए कहाँ से आये ? इस पर भी मैंने अपनी माँग को दुहराया, तब मुनि चौथमल जी के “पु?" से एक दूसरी प्रति निकलवाकर उसी समय मुझे दी गई। सं० १९६० में बीदासर में आचार्यश्री का प्रवास था। मैं अकेला आचार्यश्री की सेवामें था। आचार्यश्री ने अपने “पु?" से एक कवितापत्र निकाला और मुझे दिया। मैंने मुनि नथमल जी को वह दिखलाया, तो उन्होंने भी उसकी माँग की। दूसरा पत्र उपलब्ध नहीं था, अतः नया लिखवाकर उन्हें दिया गया । सं० १९८६ के सरदारशहर चातुर्मास में दीक्षाएं हुई, तब जो वस्त्र आया, उसमें से एक कंबल को अलग रखते हुए आचार्यश्री ने कहा-यह नत्थू-बुद्ध को देना है। किसी मुनि के द्वारा हमें उक्त सूचना तो मिली ही, साथ ही यह भी पता चला कि उस कंबल के एक भाग में कुछ काले धब्बे हैं। मध्याह्नकालीन भोजन के पश्चात् कालूगणी ने कंबल के दो टुकड़े किए और हमें देने लगे तब हम दोनों ने ही बिना धब्बे वाले टुकड़े की मांग की। आचार्यश्री ने हमें समझाने का प्रयास किया कि धोने पर ये धब्बे मिट जायेंगे, परन्तु धब्बे वाला भाग लेने के लिए हम दोनों में से कोई भी उद्यत नहीं था । आखिर आचार्यश्री ने दोनों भागों को अपनी गोद में दबाया और वस्त्र से ढक दिया । केवल दो छोर ऊपर रखकर हमसे कहा कि एक-एक छोर पकड़ लो। हम दोनों ठिठके तो सही, परन्तु फिर एक-एक खण्ड ४, अंक ७-८ ३६५
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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