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आचार्य ने कहा - "यह भी एक पाठ ही था । भावी राजा को यह ज्ञात होना चाहिए कि गरीब का श्रम कितना मूल्यवान होता है ।"
आचार्यश्री ने कहानी का उपसंहार करते हुए कहा- - "अध्यापक तो राजा के पुत्र से भी भार उठवा लेता है, तो फिर तुम्हारी शिकायत कैसे मानी जा सकती है ? तुलसी ने तो तुम्हें बात करने से ही रोका है । जाओ, मन लगाकर पढ़ा करो और जैसा वह कहे वैसा ही किया करो। "
हम आशा लेकर गये थे, परन्तु निराशा पाकर लौट आये। दूसरे दिन मुनि तुलसी के पास पढ़ने के लिए गये तो मन में धुकुर-पुकुर मची हुई थी कि कहीं हमारी शिकायत का पता लग गया तो क्या होगा ?
किशोरावस्था में
बाल्यावस्था से किशोरावस्था में पहुंचने पर हमारी स्पर्धा के विषय बदल गये । सं० १६६१ में जोधपुर चातुर्मास में हमने राजस्थानी भाषा की प्रथम काव्य रचना की । सं० १९९४ के बीकानेर चातुर्मास में संस्कृत भाषा में प्रथम काव्य रचना की । हम एक दूसरे को अपनी रचना दिखाते और उसके गुण-दोषों पर चर्चा करते । अन्य विषय पर भी हमारी परस्पर चर्चा चलती रहती थी । हम शौच के लिए प्रायः सबसे दूर जाया करते । वहाँ आसन किया करते । संस्कृत भाषण का अभ्यास भी किया करते । एक दूसरे से प्रायः प्रेरणा ग्रहण करते रहते । शिक्षार्थी साधुओं को व्याकरण, काव्य और दर्शन - शास्त्र आदि अनेक विषयों का प्रशिक्षण देने का कार्य भी हम लोगों ने किया ।
परिहास के क्षणों में
समय-समय पर हम दोनों में परिहास भी चलता रहता था। एक बार मुनि नथमल जी ने किसी विषय पर मुझे कोई सुझाव दिया। मैंने उसे अस्वीकार करते हुए उनका मजाक उड़ाया कि मैं आपसे आयु में नौ दिन बड़ा हूं, अतः मुझे शिक्षा देने का आपको कोई अधिकार नहीं है । उन्होंने भी मुझे उसी लहजे में तत्काल उत्तर दिया कि तुम नौ दिनों के घमण्ड में फूले हो, मैं दीक्षा में तुम्हारे से नौ महीने बड़ा हूं ।
एक बार मैंने उनको कोई सुझाव दिया तो उसका मजाक उड़ाते हुए उन्होंने कहा"तुम्हारा तो नाम ही बुद्ध है, तुम मुझे क्या सुझाव दे सकते हो ?" मैंने भी "जैसे को तैसा" उत्तर देते हुए कहा -- " मैं समझदार व्यक्ति के कथन को ही महत्त्व देता हूं । “ऐरे गैरे नत्थू खैरे” मेरे विषय में क्या कहते हैं, उस पर कभी ध्यान नहीं देता ।"
जो आज भी याद है
आक्षेपात्मक परिहास प्रायः कटुता उत्पन्न कर देते हैं, जबकि गुदगुदाने वाले परिहास तृप्तिदायक होते हैं । वे बहुधा अपनी स्मृति में भी वैसी ही तृप्ति प्रदान करते हैं । सं० २००० में मेरे द्वारा किया गया एक परिहास, जिसे मैं भूल चुका था, परन्तु युवाचार्य
खण्ड ४, अंक ७-८
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