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जी को आज भी वह याद है । इसका पता मुझे तब लगा जब युवाचार्य बनने से तीन-चार दिन पूर्व ही बात-चीत के सिलसिले में उन्होंने मुझे उस घटना का स्मरण कराया। उक्त घटना सं० २००० के चातुर्मास से पूर्व ग्रीष्मकाल की है । उस समय आचार्य श्री तुलसी ने मुनि नथमल जी को अग्रणी रूप में बहिबिहार के लिए भेजा था । बाइस वर्ष की चढ़ती अवस्था और निश्चित स्वतंत्र विहरण ने उनके शरीर पर काफी अच्छा प्रभाव डाला । कुछ महीनों के पश्चात् जब वे वापस आये तो रक्ताभ मुख उनकी स्वस्थता का अग्रिम परिचय दे रहा था । मैंने उनको वन्दन किया और परिहासमय प्राचीन श्लोक का एक चरण सुनाते हुए उसी के माध्यम से उन्हें सुखपृच्छा की । स्थित्यनुकूल सटीक बैठने वाला अपना परिहास सुनकर वे खिलखिला पड़े । अभी-अभी राजलदेसर में युवाचार्य बनने से पूर्व उन्होंने मुझे मेरी परिहास - प्रकृति का स्मरण दिलाते हुए वही चरण गुनगुना कर कहा था -- क्या तुम्हें याद है कि तुमने मेरे लिए इसका प्रयोग किया था ? लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व किये गये उस परिहास को याद कर हम दोनों एक बार फिर खिलखिला कर हंस पड़े । साथ के साधु जिज्ञासापूर्वक उस श्लोक के लिए पूछते रहे ।
इस पड़ाव पर
आचार्यश्री तुलसी ने सं० २००० का चातुर्मास करने के लिए मुझे अग्रणी बनाकर श्री डूंगरगढ़ भेज दिया । उसके पश्चात् धीरे-धीरे मुझे बहिविहारी ही बना दिया गया । तभी से हम दोनों के कार्यक्षेत्रों में पार्थक्य प्रारंभ हो गया। मुनि श्री नथमल जी को आचार्यश्रा के सामीप्य का निरंतर लाभ प्राप्त होता रहा, मुझे वह नहीं मिल पाया । पैंतीस वर्षों के इस प्रलंब बहिविहार-काल में मैंने जीवन की दुर्गम घाटियों के अनेक उतार-चढ़ाव पार किये हैं । आज जिस पड़ाव पर खड़ा हूँ, वहाँ से पूरे अतीत को बहुत स्पष्टता से देख रहा हूं । विगत का पूरा लेखा-जोखा मेरे मस्तिष्क में अंकित है । उसके पृष्ठ उलटतापलटता हूं तो पाता हूं कि बाल सखा मुनि नथमल जी युवाचार्य महाप्रज्ञ बनकर भी आज मेरे वही निकटतम साथी है। यात्रा मार्ग और पड़ावों की दूरियाँ हमारे सख्य में कोई बाधा उपस्थित नहीं कर पाई हैं ।
नया मोड़ आ रहा है
आचार्यश्री तुलसी ने मुनि नथमलजी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया । चारों ओर वातावरण में एक हर्षोत्फुल्लता छा गई । मैंने एक अतिरिक्त आह्लाद और गौरव का अनुभव किया। दूसरे दिन प्रातः प्रतिलेखन आदि कार्यों से निवृत्त होकर बैठा ही था कि अचानक युवाचार्य मेरे कमरे में प्रविष्ट हुए । मैंने उठकर उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा -- "तुम तो मेरे साथी हो, साथी के लिए आया हूं ।" उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और कहा चलो आचार्यश्री के पास चलें । मैं उनके साथ गया तो आचार्यश्री ने उस स्थिति पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए जो कुछ कहा वह मुझे गद्गद् कर गया । उसी दिन प्रातः कालीन व्याख्यान में युवाचार्य का अभिनन्दन करते हुए मैंने उक्त घटना का उल्लेख किया तो उत्तर देते समय युवाचार्य ने मेरी बात को छूते हुए कहा -- "साथी तो साथी ही रहता है ।" मैंने अनुभव किया संस्मरणों के प्रवाह में अवरोध नहीं, एक नया मोड़ आ रहा है ।
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तुलसी- प्रज्ञा