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पत्र चार सौ संग लिये फिर, लेखन स्याही काली। प्रतिदिन लिखते पथ में केवल, गया एक दिन खाली' ॥१५॥ उष्ण छाछ का नितरा पानी, 'आछ' नाम से नामी। सेर पच्चीस के लगभग दिन में, पी सकते गुणधामी' ॥१६।।
और वे उसे कढी आदि में मिलाकर पी गये । समय की बात थी कि रात में अपच हो गया, जिससे उनको काफी दस्त लगे। शरीर बहुत अस्वस्थ और कमजोर हो गया। प्रातःकाल जब उन्होंने जयाचार्य के दर्शन किये तब आचार्यप्रवर ने फरमाया-तपस्वी ! अब वह मासखमण करने का विचार मत रखना, क्योंकि रात में तुम्हारे बहुत अस्वस्थता रही।" तपस्वी ने कहा-गुरुदेव ! मैंने वह विचार छोड़ दिया है । अब तो आप कृपा कर मुझे छहमासी पचखा दीजिए। तपस्वी के ये पुरुषार्थ भरे वचन सुनकर सब देखने वाले तथा स्वयं जयाचार्य विस्मित हो गये। आखिर तपस्वी ने बहुत आग्रह भरे शब्दों में निवेदन किया तो जयाचार्य ने उनको आछ के आगार से एक साथ छहमासी पचखा दी। वे बड़े प्रसन्न हुए।
जयाचार्य ने उनसे पूछा--तुम्हें किसी प्रकार की चाह हो तो कहो। उन्होंने कहा-मुझे दो, तीन सौ कोश का विहार के लिए आदेश दें। तपस्वी की इस मांग को सुनकर सभी आश्चर्य चकित हो गये। सोचा तो यह गया था तपस्वी मनोनुकूल क्षेत्र और अपनी सेवा में रखने के लिए विशेष साधुओं के लिए निवेदन करेंगे, पर तपस्वी की मांग तो निराली ही रही । आचार्यवर ने फरमाया--तपस्या में इतना लम्बा विहार कैसे होगा ? मुनिश्री बोले- मुझे आहार तो करना नहीं हैं, चलता रहूंगा। तब आचार्यश्री ने उनको मालव प्रान्त में आने का आदेश दिया।
गुरुदेव ने उनको दूसरी मांग के लिए फिर कहा तो उन्होंने कहा-मुझे ४०० पन्ने लिखने के लिए दे दीजिए । आचार्यश्री बोले-इतने लम्बे विहार में इतना लिखना कैसे संभव होगा ? तपस्वी ने कहा-भगवन् ! मेरे काम क्या हैं ? खाना तो है नहीं, यथासमय सुबहशाम चलता जाऊंगा और दिन में आलस्य न आये इसलिए लिखता रहूंगा।" तपस्वी की दूसरी मांग भी पूरी की। उन्होंने वहां से विहार किया। रास्ते में निरन्तर लिखना चालू रहा। कभी-कभी ४-५ पन्नों तक लिख लेते थे। इस प्रकार ४०० पन्ने लगभग लिखे एवं मालव प्रदेश में जाकर १६३ दिन का पारणा किया । कहा जाता है कि पारणे के दिन उन्होंने १६६ घरों की गोचरी की।
(अनुश्रुति के आधार से) १. मुनिश्री रास्ते में प्रतिदिन लिखते थे । केवल एक दिन खाली गया। २. मुनिश्री आछ के आगार से की गई तपस्या के एक दिन में अधिक से अधिक २५ सेर
लगभग आछ का पानी पी लेते थे।
तुलसी-प्रज्ञा