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________________ दुःषह परिषह शीतादिक के, सहन किये हैं भारी। कर्म निर्जरा कर कर भरली, सुकृत सुधा रस क्यारी॥१७॥ चौविहार पन्द्रह दिन करके, पिया एक दिन पानी। तन में कृशता आई कुछ पर, चढ़ती भाव जवानी ॥१८॥ सप्त दशम दिन देवरिया में, देवलोक पहुंचाये। संयम तप के शिखरों चढ़कर, नाम अमर कर पाये ॥१९॥ लय-मूल धन्य-धन्य वे महामना है, खोल दिया तप का झरणा है। श्रद्धानत संसार झांकता क्षण-क्षण उनकी ओर ॥२०॥ जय-जयकारी भैक्षव शासन जय-जयकारी तरुण तपोधन। जन-जन मुख से जय-जय ध्वनियां उठती चारों ओर ।। दोहा दीक्षा उनके हाथ से, हुई संत की एक' । चातुर्मासिक क्षेत्र का, मिलता कुछ उल्लेख' ॥२२॥ १. सं० १९२६ में देवरिया (ख्यात में नवैशहर देवरिया लिखा है) ग्राम में उन्होंने १५ दिन चौविहार किये, १६वें दिन पानी पिया और १७वें दिन अचानक स्वर्ग प्रयाण कर दिया । शहर देवरियो दीपतो हो, पंडित मरण उछाह । अनोप तपसी हद लियो हो, पद आराधक लाह ॥ (मघवागणि रचित ढा. १ गा. १५) २. ख्यात में उल्लेख है कि मुनिश्री अनोपचंदजी ने सं० १६०५ में मुनिश्री ज्ञानजी (१५२) को दीक्षा दी। ३. मुनिश्री के अग्रणी होने का संवत् नहीं मिलता पर कुछ चातुर्मास इस प्रकार मिलते हैं । ___ सं० १९११ में उनका चातुर्मास झकनावद था । जय सुजश ढा. ४१ गा. २ में चातुर्मास के आदेश का उल्लेख है। वहां उन्होंने छहमासी तप किया था। उसका झकनावद में पोष महीने में जयाचार्य ने पारणा कराया था, ऐसा मघवा सुजश ढा. ५ दो. २ में उल्लेख है। श्रावकों द्वारा लिखित प्राचीन चातुर्मासिक तालिका के अनुसार सं० १६१२ में मुनिश्री का ५ ठाणों से चातुर्मास राजनगर था। ____सं० १६१६ में ३ ठाणों से जोधपुर चातुर्मास था। साथ में मुनि कपूरजी (१०६) और घणजी (१३१) थे। ऐसा पंचपदरा के श्रावकों के प्राचीन पत्रों में उल्लेख मिलता है। ___सं० १९२३ में मुनिश्री जयाचार्य के साथ बीदासर चातुर्मास में थे। वहां उन्होंने ३५ दिन का तप किया। खण्ड ४, अंक ७-८ ४३९
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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