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दोहा किया तीसरा छह मासी का, पुण्य 'पारणा' भारी। योग मिला श्री जयाचार्य का, मेला लगा प्रियकारी ॥१३॥ चौथी छहमासी चंदेरी में, एक साथ फिर पचखी।
मालव में जा किया पारणा, आत्म शक्ति को परखी२ ।।१४।। १. सं० १९११ में मुनिश्री ने तीसरी बार छहमासी (१८१ दिन) की, उसका पारणा जयाचार्य ने झखणावद में पोष महीने में करवाया।
पोष मास झखणावद में, तपसी अनोप नै ताम । आछ आगार षट् मास नो, पारणो करायो स्वाम ॥
(मघवा सुजश ढा. ५ दो. २) मुनिश्री की छहमासी के पारणे के असवर पर मुनिश्री शिवजी (७८) भी पेटलावद चातुर्मास कर झखणावद आ गये थे। वहां उन्होंने भी ८ दिन का तप किया था। इसका उनके गुण-वर्णन की ढाल में उल्लेख मिलता है
मुनि थे तो चरम चौमासो अमद, कियो पटलावद रा । तपसीजी। मुनि थे तो विहार करी सुखदाया, जखणावदे आया रा। , मुनि तिहां अनोपचंद सुविमासी, करी खट मासी रा। , मुनि तिहां थे पिण करी अठाई, पारणो संग लाई रा। , मुनि तिहां अनोप नै पारणो करायो, जीत ऋषि आयो रा। , मुनि तिहां संत सत्यां रा थाट, अति गहघाट रा। ,
(शिव मुनि गु. ब. ढा. १ गा. ४६ से ५४ तक) सं० १९१२ में मुनिश्री का चातुर्मास राजनगर था। फिर वे नाथद्वारा आये। वहां जयाचार्य ने उनको सवा सातमासी (२१८ दिन) का पारणा करवाया।
श्रीजीद्वार पधारिया रे, तिहां तपसी काकडाभूत ।। अनोपचंद बे सो अठारा आछ नां रे, पारणो करायो अदभूत ॥
(मघवा सुजश ढा. ५ गा. ६) जय सुजश ढा. २३ गा. २७,२८ में भी इसका उल्लेख है । २. मुनिश्री की सं० १६१५ की चौथी-अन्तिम छहमासी का (१६३ दिन) बड़ा रोचक संस्मरण है । सं० १९१४ के शेषकाल में जयाचार्य लाडनूं विराज रहे थे। तपस्वी मुनि ने गुरुदेव से प्रार्थना की-कल से मैं एक महीने की तपस्या करना चाहता हूं। आचार्य श्री ने प्रबल भावना देखकर उनको स्वीकृति दे दी। उन्होंने सायंकाल का भोजन (धारणा) भी कर लिया। वे पंचमी समिति के लिए जाने लगे तब साध्वी प्रमुखा सरदारांजी ने उनसे कहा-आज कुछ घी अधिक आ गया है, उसे आपको उठाना (खाना) है । वे बोले मैंने आहार कर लिया है, अब मुझे भूख नहीं है। महासती ने कहा-"आप जैसे तपस्वी संतों के क्या पता लगता है, किसी कोने में पड़ा रहेगा।" अच्छा ! आपकी जैसी इच्छा हो। साध्वी प्रमुखा ने एक सेर लगभग घी उनको दिया
खण्ड ४, अंक ७-८
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