________________
लय मूल फिर विरति अनप भावना में, रुचि निखरी आत्म-साधना में ।
मुनि स्वरूप से पाये संयम होकर हर्ष विभोर ।।४।। १. मुनि श्री के दिल में वैराग्य भावना उत्पन्न हुई तब वे दीक्षा की स्वीकृति पाने के लिए
प्रयत्न करने लगे। एक दिन उन्होंने अपने चाचा कुशलचंद जी से कहा-आप मुझे माता-पिता के द्वारा दीक्षा लेने की अनुमति दिलवाएं तो मैं आपका बहुत उपकार मानूंगा। मुझे यह सारी सांसारिक माया स्वप्न की तरह लग रही है, मैं जल्दी से जल्दी संयम लेना चाहता हूं, मेरा एक-एक दिन वर्ष के बराबर जा रहा है। जब तक दीक्षा की आज्ञा न मिलेगी तब तक मेरे १. खुले मुंह बोलने का २. घर का काम करने का ३. व्यापार करने का ४. कच्चा जल पीने का त्याग है। चाचा ने कहा- तुम धैर्य रखो, मैं वचन देता हूं कि अगर तुम्हारा पक्का मन है तो कोशिश करके तुम्हें दीक्षा दिलाऊँगा । उन्होंने मुनि श्री (अनोपचंद जी) के पिता को शान्तिपूर्वक समझाया तब वे सहमत हो गये।
मुनि श्री के माता-पिता एवं पारिवारिक लोगों ने बड़ी धूमधाम से दीक्षा का उत्सव मनाया। वे साधु वेप पहनकर मुनि श्री सरूपचन्द जी के चरणों में प्रस्तुत हुए
और पिता नंदराम जी ने हर्ष सहित अपने पुत्र को दीक्षा प्रदान करने के लिए मुनिश्री से निवेदन किया।
(मुनि जीवोजी कृत ढाल १ गा. ३ से १२ के आधार से) इस प्रकार सं० १८६२ चैत्र बदि ८ गुरुवार को नाथद्वारा में पत्नी वियोग के बाद उन्होंने भरापूरा परिवार एवं बहुत ऋद्धि को छोड़कर मुनि श्री सरूपचंदजी (६२) द्वारा दीक्षा ग्रहण की।
चैत मास में चूंप सूं, श्रीजीद्वारै आय । अनोप नै चारित दीयो, बड तपसी मुनिराय ॥
(सरूप नवरसो ढाल ७ दो. ४) समत अठारै बाणुवै हो, चैत शुक्ल श्रीकार के । अष्टमी संयम आदर्यो हो, तजी ऋद्धि परिवार के।
(मघवागणि विरचित ढाल १ गा. ४) सं० १८६२ चैत्र सुदि ८ को मुनि सरूपचंद जी द्वारा दीक्षा ली।
संवत् अठारै बाणुवै, चैत वदि आठम ताय । रायऋषि रै आगल, संजम लियो सुखदाय ॥
(श्रावक द्वारा रचित ढाल १ दो. २) समत अठारै बरस बाणु, चेत मास विध रे ॥ तिथ आठम नैं गुरवार अनोपजी, चारित लै सुध रे ॥
(मुनि जीवोजी कृत ढाल १ गा. १)
तुलसी-प्रज्ञा
(ख्यात)