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साहित्य समीक्षा
तीर्थकर (मासिक), वर्ष ८, अङ्क ७-८, नवम्बर-दिसम्बर १९७८
श्री नैनागिरि तीर्थ एवं आचार्य विद्यासागर विशेषाङ्क सम्पादक-डॉ० नेमीचन्द जैन प्रकाशक-हीरा भैया प्रकाशन, ६५, पत्रकार कॉलोनी, कनाड़िया रोड़, इन्दौर
४५२००१ वार्षिक शुल्क-दस रुपये प्रस्तुत अङ्क-पाँच रुपये; पृष्ठ १२८ ।
तीर्थकर ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किया है, वह प्रशंसनीय है । तीर्थकर के अद्यावधि जितने विशेषाङ्क निकले हैं, उनकी एक स्वस्थ परम्परा है। प्रस्तुत श्री नैनागिरि तीर्थ एवं आचार्य विद्यासागर विशेषांक भी उसी परम्परा का संवाहक है । विशेषाङ्क के माध्यम से किसी व्यक्ति/तीर्थ विशेष के अन्तर-बाह्य स्वरूप का आकलन करना साधारण बात नहीं है, किन्तु प्रस्तुत विशेषाङ्क में जिन नपे-तुले शब्दों में आचार्य विद्यासागर जी और नैनागिरि तीर्थ क्षेत्र का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया है, वह अभिनन्दनीय है।
प्रस्तुत विशेषाङ्क में जितने भी लेख दिये गये हैं, वे सभी महत्त्वपूर्ण हैं, इनमें पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री का 'णमो लोए सव्व साहूणं', डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री का 'जैन साधु की चर्या', नीरज जैन का 'एक और विद्यानन्दि', आचार्य विद्यासागर का 'मोक्ष आज भी सम्भव है', डॉ० नेमीचन्द जैन का 'भेट, एक भेद विज्ञानी से' और सुरेश जैन का 'नैनागिरि : जहाँ खुलते हैं अन्तर्नयन' नामक लेख अन्तस् को छूने झकझोरने वाले हैं। पण्डित कैलाशचन्द शास्त्री का यह कथन कि-"आज की विडम्बनाएँ देखकर मेरा यह मत बन गया था कि इस काल में सच्चा दिगम्बर जैन साधु होना सम्भव नहीं है, किन्तु जब से आचार्य विद्यासागर के दर्शन किए हैं, मेरे उक्त मत में परिवर्तन हुआ है" यथार्थ है। मैं समझता हूं कि आचार्य विद्यासागर जी के दर्शन करके केवल' पण्डित जी की ही नहीं, अपितु उनके अन्य समानधर्मा व्यक्तियों की भी यही स्थिति होगी।
__इस अङ्क की अन्य जो विशेषता है, वह है सम्पादकीय–'साधुओं को नमस्कार' । ऐसा स्वस्थ चिन्तन कभी-कभार ही पढ़ने को मिलता है। सम्प्रदायगत बू से रहित निम्न पंक्तियां द्रष्टव्य हैं
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तुलसी प्रज्ञा