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भी वे दीक्षित न हो सके । परिवार के सात निकटतम व्यक्तियों की दीक्षाओं में युवाचार्य श्री ने ही प्रथम शुभारम्भ किया।
श्री कालूगणी के लाडले और आचार्य श्री तुलसी के अत्यंत स्नेहिल विद्यार्थी के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में आज हमारे सामने प्रस्तुत हैं । शान्त स्वभाव और मृदुता से कोई भी गुरु का स्नेह भाजन हो सकता है, पर अध्यात्म योग-रमण की गहनता पाना विरलविरल और अतीव विरलता का सूचक है।
___ मैं १२ वर्ष की उम्र में प्रथम बार ही टमकोर गई, मेरा जी ऊब गया था। मात्र रेतीले टीले और उनके बीच बसा हुआ भव्य भवनों का एक छोटा-सा ग्राम । जहाँ न स्कूल की, न नल की, न बिजली की और न यातायात की, कोई सुविधा थी। काश ! वहाँ आचार्य प्रवर और युवाचार्यश्री का पदार्पण न होता तो घोर घुटन के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं आता । क्योंकि मनोरंजन व सापेक्ष-सुविधा सामग्री का भी बाजार वहाँ देखने को न मिलता था । युवाचार्यश्री वहाँ जन्मे और शिक्षा-साधना के अभाव में भी होन-हारिता उनके साथ जनमी, जिसकी परख दिव्य दृष्टि वाले सन्तों ने ही की। परिवार के सुकुमार लाड़ले, अपनी मां श्री बालुजी के एकमात्र आँखों के तारे, कैसे उन्हें सन्तों की प्रेरणा भाती। किन्तु विश्व का भी सौभाग्य वहाँ अडिग प्रहरी बनकर खड़ा था। परिवार वाले, ६ वर्ष की अवस्था में ही शादी-सम्बन्ध की धुन में लगे हुए थे, किन्तु सबके सौभाग्य को जगाने, उनकी आत्मा के देवता ने उन्हें प्रतिबोध दिया। मुनि श्री छबील जी स्वामी का अथक प्रयास सफल हुआ। तदनन्तर, अपनी मां श्री बालु जी के साथ पूज्य श्री कालूगणी के कर-कमलों में १० वर्ष की लघुवय में मुनि व्रज्या उन्होंने स्वीकार की। कुछ समय बाद उनकी बहिन श्री मालुजी ने भी सन्यास ले लिया।
आज भी उनका जन्म-भवन, एक विशाल मकान, उसके सुन्दर चित्र, अनेक विध सामग्री उनके अपार वैभव की निशानी की सूचक है। लगता है उस समय पूरे टमकोर में उनका ही वैभव अद्वितीय था। घर में ऊँट, घोड़े, अनेक गो, महिष व्रज रहे होंगे, क्योंकि उनके गहने व अन्य संघात, इन बातों का परिचायक है। ४ भाइयों के परिवार में २ भाइयों के (साध्वी प्रमुखाश्री जी के नाना--श्री गोपीचन्द जी चोरडिया साध्वी श्री मोहना जी के पिता श्री बालचन्दजी चोरडिया) के मकान अलग थे। उनके सबसे छोटे चाचा पन्नालालजी तथा उनके पिता श्री तोलामल जी एक ही मकान में सम्मिलित रूप में रहते थे।
अस्तु, निकट अतीत तक उनका अपना प्रिय नाम मुनि श्री नथमलजी था । आचार्य श्री तुलसी ने, उसके साथ महाप्रज्ञ एक निष्पन्न विशेषण दिया, किन्तु आज तो विशेषताओं से भरा, उनका अपना नाम ही महाप्रज्ञ घोषित हो गया।।
यह सब आपकी योग-विद्या के करिश्मों का सूचक है। आत्मा को छूने वाली अनेक अभिव्यक्तियों का भेद मंत्र है । और पूर्वापर जीवन की अकल्पित विभिन्न निर्मितियों के एकीकरण का फलित है । आज अपना परिचय वे स्वयं दे रहे हैं। उनका साहित्य उनके शिविर संचालन, उनके गहन दर्शन पूर्ण वक्तव्य दे रहे हैं। भारत के विवेकानन्द के रूप में मनीषियों ने जिनको परखा है। श्री कृष्ण के अर्जुन की तरह जिनको आचार्य श्री ने अपने
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तुलसी-प्रज्ञा