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________________ युवाचार्यश्री का अभिनन्दन --उपाध्यायश्री अमरमुनि क्रान्तदर्शी महामनीषी मुनिश्री नथमलजी को जब “महाप्रज्ञ" पद से अलंकृत किया गया था, तो हर सहृदयों के हृदय सरोवर में प्रसन्नता की तरंग नाचने लगी थी। और अब जब कि उन्हें भावी आचार्य के रूप में युवाचार्य पद से अभिषिक्त किया गया, तो अन्तर्मन आनन्द की हजारों-हजार उच्छल लहरों से अभितो व्याप्त हो गया। मुनिश्री प्रज्ञा की ज्योतिर्मयी सजीव मूर्ति हैं। उनका सरल, स्वच्छ, सहज, सद्व्यवहार हर किसी सहृदय के हृदय को सहसा आप्यायित कर देता है । उनका व्यापक अध्ययन एवं सूक्ष्म दार्शनिक चिन्तन कठिन से कठिन, दुर्धर, गंभीर विषय को भी अन्तस्तल तक स्पर्श करता है। प्राचीन आगमों के सम्पादन में उन्हें अनेकत्र मुकामन से सत्य का अनुसरण करते पाया है, जो सम्प्रदाय विशेष से परिबद्ध व्यक्ति के लिए प्रायः असंभव ही होता है। आत्मप्रिय मुनिश्री से मेरा परिचय लगभग २१ वर्ष पुराना है। आगरा के प्रथम मिलन में ही मुझे उन्होंने स्नेहाकृष्ट किया था। तभी मैंने उनके चिन्तन में क्रान्ति के स्फुलिंग विकीर्ण होते देखे थे, जो अब बहुत कुछ ज्वाला ही नहीं, निधूम प्रज्वाला बन गए हैं । सत्य को बेलाग स्वीकार करने में अनेक बार वे सर्वथा बेदाग सिद्ध हुए हैं। प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं पर मुनिश्री की अव्याहत साधिकार गति है । तद्-तद् भाषाओं में उनकी अनेक रचनाएं जहाँ लोकप्रिय हुई हैं, वहाँ विद्वत्प्रिय भी हैं । वे संस्कृत के आशुकवि भी हैं । आगरा की एक सभा में सभा के तत्कालीन भव्य दृश्य को उन्होंने संस्कृत छन्दों में जब आशुरचना का रूप दिया, तो हम सब प्रतिभा के इस अद्भुत चमत्कार से मंत्रमुग्ध हो गये थे। यथाप्रसंग मुनिश्री ने अपनी अनेक साहित्यिक कृतियों पर मेरे अभिमत लिए हैं और मैंने प्रशंसामुखर शब्दावली में योग्य अभिमत दिये हैं। यह कोई लोकव्यवहार के नाते औपचारिक रूप में सतही तौर पर नहीं होता रहा है । मुनिश्री की बहुत कुछ बातें मुझे अच्छी लगी हैं, और मैंने खुले निर्व्याज मन से उनका अभिनन्दन किया है । यद्यपि मेरे कुछ कट्टर साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के साथियों को यह पसंद नहीं होता था, परन्तु सत्य को दूसरों की पसंदगी या नापसंदगी से कुछ लेना-देना नहीं है । सत्य का मूलाधार तो एक मात्र अपनी स्वानुभूति से प्रस्फुरित सहज अभिरोचना है । यही हेतु है, कि साम्प्रदायिक द्वन्द्वों के कटु वातावरण में भी मेरी और मुनिश्री की पारस्परिक आत्मीयता की निष्कलुष स्नेह धारा अबाध गति से निकास पथ पर अग्रसर होती जा रही है। आचार्यप्रवर श्री तुलसीजी ने युवाचार्य के रूप में योग्य पद पर योग्य मुनि का चयन किया है, एतदर्थ शत-शत साधुवाद । यह चयन केवल तेरापंथ सम्प्रदाय के हित में ही नहीं, समग्र जैन समाज के हित में फलप्रद होगा, ऐसा मुझे उनके निरंतर उज्जवल होते जाते भविष्य पर से प्रतिभाषित होता है । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं मुनिश्री जी के साथ हैं। खण्ड ४, अंक ७-८ ४०७
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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