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________________ स्वर्गीया माता जी बालूजी ने आचार्य श्री के प्रति समर्पित रहने में पूरा योग दिया। वे हमेशा यही कहतीं कि आचार्य श्री की दृष्टि हमेशा ध्यान में रखना । गुरुदेव की दृष्टि के प्रतिकूल कभी कोई कार्य मत करना । यह उनका एक सूत्र था। ___ अब मैं अपनी अन्तिम बात करना चाहता हूं। संघ की प्रगति और विकास के लिए हमें क्या करना है ? हमारे संघ की प्रगति और विकास का सबसे बड़ा सूत्र है अनुशासन । आचार्य श्री में अनुशासन की शक्ति है, कर्तृत्व की शक्ति है, वे कर सकते हैं। इसलिए हम संभावना करते हैं कि आचार्य श्री के द्वारा संघ का बहुत बड़ा विकास हो सकेगा। भारतीय चिन्तन का विकास हो सकेगा। जैन धर्म का विकास हो सकेगा। तो सबसे पहली हमारी शक्ति है अनुशासन । इसे हम कभी गौण नहीं करें। तेरापंथ की आज जो कर्मजा शक्ति सारे विश्व के सामने प्रस्तुत हो रही है और आज बड़े-बड़े समाज आचार्य श्री तुलसी का लोहा मान रहे हैं, उसका आधार क्या है ? यही अनुशासन है । एक अनुशासन में इतने योग्य और क्षमता-शील साधु-साध्वियों का होना, मैं बड़े सौभाग्य की बात मानता हूँ । डेढ़ हजार वर्ष के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि एक आचार्य के नेतृत्व में ऐसे सशक्त साधु-साध्वियाँ हों और इतने कार्यशील साधु-साध्वियाँ हों। किसी आचार्य के पास पाँच-दस हो सकते हैं, किन्तु जहाँ पचासों-पचासों साधु-साध्वियां सक्षम हो, यह किसी विरल, भाग्यशाली आचार्य को ही उपलब्ध हो सकता है। यह हमारा गौरव है । इसका मूल आधार है अनुशासन । आचार्य प्रवर ने समय-समय पर जो निर्देश दिये और साधुसाध्वियों ने तत्परता से उनका पालन किया, परिणामत: आज हमारा धर्म-संघ बहुत शक्तिशाली बन गया। दूसरी बात, विकास के लिए बहुत जरूरी है शिक्षा की । अनुशासन हो और बौद्धिक विकास न हो, शिक्षा न हो, तो काम बहुत आगे नहीं बढ़ सकता । हम एक साथ रह सकते हैं, अच्छे ढंग से रह सकते हैं, पर दूसरों को जो देना चाहते हैं, वह नहीं दे सकते । समाज के प्रति और एक विशाल समाज के प्रति हमारा कोई अनुदान नहीं हो सकता। वह तब हो सकता है, जब हमारा बौद्धिक विकास हो । हमारे संघ ने आचार्य श्री के नेतृत्व में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है, पर एक बात साथ-साथ यह भी कहना चाहता हूँ, जो प्रगति हो रही थी, उसमें थोड़ा-थोड़ा अवरोध भी आया है। प्रगति का युग वह था, जब मुनि तुलसी हमें पढ़ाते थे और हम पढ़ते थे। वह क्रम बराबर चलता तो आज संघ का रूप ही कुछ दूसरा होता । किन्तु क्या कहूँ, वैसा नहीं हो सका। मुनि तुलसी मुनि नहीं रह सके और मुनि नथमल, मुनि बुधमल विद्यार्थी नहीं रह सके। सब कुछ बदल गया। हम लोग शिक्षा के क्षेत्र में एक कार्यक्रम बनाएं और जो कीर्तिमान हमारे धर्मसंघ ने स्थापित किया है, उस कीर्तिमान को स्थायी रखें तथा उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करें। __ अनुशासन भी हो, शिक्षा भी हो और बौद्धिकता भी हो, किन्तु अध्यात्म की साधना न हो तो बौद्धिकता लड़ाने वाली हो सकती है। आप इस बात को कभी न भूलें । तर्क आदमी को लड़ाता भी है, यह हमें ध्यान रखना चाहिए। अध्यात्म की साधना हमारे ३३४ तुलसी प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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