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________________ फिर भी कुछ हो भी सकता है । किन्तु जब सारे सम्बन्ध समाप्त हैं और यह काँच वैसा ही निर्मल हो गया, जिसमें कोई भी रेखा नहीं रही। सम्बन्ध कार्यों का भी होता है, पारिवारिक भी होता है और जन्मजात भी होता है। मेरी स्वर्गीया माता जी बालू जी आज नहीं हैं, अन्यथा वे भी दीक्षा में थीं। बहिन भी दीक्षा में हैं। कई बहिनें हैं। भानजियाँ भी हैं। कम से कम एक परिवार के हम सात लोग दीक्षित हुए। मेरे संसारपक्षीय पिताजी चार भाई थे और चारों के हम दीक्षित हैं । सम्बन्ध का अपना व्यावहारिक पक्ष होता है । किन्तु जहाँ संघ का सम्बन्ध है, वहाँ और सारे सम्बन्ध गौण हो जाते हैं । वहाँ सम्बन्ध कभी मुख्य नहीं होता। वहाँ संघ मुख्य होता है और सब बातें गौण हो जाती हैं। संघ के कार्य में किसी भी सम्बन्ध को या किसी भी निजी या निकट के व्यक्ति को कभी मुख्यता नहीं दी जा सकती है । और जब गौण बातें मुख्य बन जाती है तथा मुख्य बातें गौण बन जाती हैं, वहाँ बड़ी कठिनाइयाँ और समस्याएं पैदा हो जाती हैं। तो मैं अपनी ओर से स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कोई भी यह अनुभव न करे कि हम तो सम्बन्धी हैं और हम सम्बन्धी नहीं हैं । मेरे लिए सम्बन्ध की कोई भेद-रेखा नहीं है । मेरे लिए सब उतने ही निजी और मेरे अपने हैं, जो आचार्यवर की, संघ की मर्यादा एवं अनुशासन में दक्ष हैं। अब मैं उन लोगों की स्मृति कर लेना चाहता हूँ जिनका मेरे जीवन में योगदान रहा है। सर्वप्रथम पूज्य कालूगणी के चरणों में अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति समर्पित करता हूं, जिनका वरद हस्त मेरे सिर पर टिका और भाग्य का सूर्योदय हुआ। उनके प्रति नत होना यह कोई मेरा ही व्रत नहीं है, मेरे गुरु का भी यही व्रत है । आचार्य श्री के सामने भी जब कोई स्थिति होती है, तब वही व्रत होता है। महामुनि मंत्री मुनि की स्मृति भी करना चाहता हूं। उनके शिक्षा-पदों ने मुझे बहुत अवकाश दिया संभलने का । मैं एक घटना का उल्लेख कर देना चाहता हूँ। लाडनूं में प्रतिक्रमण करने के बाद उनके पास वंदना करने के लिए गया । मंत्री मुनि बोले--देखो ! तुम ग्रंथ पढ़ रहे हो, अध्ययन कर रहे हो, पर एक बात का ध्यान रखना, कभी अहंकार नहीं आना चाहिए । हम साधु बन गये हैं। रोटी के लिए हाथ पसारते हैं तो फिर अहंकार किस बात का, अभिमान किस बात का। इन बातों ने मेरे बालक मन पर बड़ा असर किया । उन्होंने आचार्य प्रवर से भी निवेदन किया--महाराजाधिराज । नत्थू बहत ग्रंथ पढ़ रहा है पर मूल तो ठीक है ? आचार्य श्री ने कहा--ठीक है । चिन्ता की कोई बात नहीं है । उनका समय-समय पर जो दिशा-निर्देश मिला, वह मेरे जीवन के लिए बहुत सम्बल बना। स्वर्गीय भाईजी महाराज चम्पालाल जी स्वामी को मैं नहीं भूल सकता। उन्होंने बचपन से ही हमारे साथ सारणा-वारणा का प्रयोग किया और इन वर्षों में तो उनका इतना अटूट स्नेह मुझे मिला कि जिसकी शायद पहले कल्पना भी नहीं थी। वे बहुत बार कहते-- यह पाँचवाँ आरा है, अगर चौथा होता तो केवली हो जाते । न जाने कितनी बार इस बात को दोहराते। खण्ड ४, अंक ७-८ ३३३
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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