SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्यप्रवर ने मुझ पर असीम विश्वास किया है । एक छोटे-से बालक को जिसे एक दिन अपने हाथों में लिया था, आज उसी को अपने बराबर बिठा दिया। मेरे जैसा छोटा बच्चा और इतने महान् आचार्य ! मैं तो इनके सदा चरणों में रहने वाला था और उन्होंने हाथ पकड़कर अपने बराबर बैठा दिया । मैंने प्रार्थना की - आप और कुछ कहें, किन्तु बराबर बैठने के लिए न कहें, पर आखिर निर्देश निर्देश होता है, आदेश आदेश होता है । न चाहते हुए भी मुझे वैसा करना पड़ा। यह आचार्यवर का गौरव, उनकी गुरुता, महानता और विशालता है कि जिस अवोध बालक को उन्होंने अपने हाथों में लिया और एक दिन उसी बच्चे को अपने बराबर बना दिया और बैठा दिया । इस महानता के प्रति मैं कोई भावना व्यक्त करू, मेरे पास कोई शब्द नहीं है। आचार्यप्रवर ने जो विश्वास किया, जो अनुग्रह किया, जो आशीर्वाद दिया, उसे समूचे श्रमण-श्रमणी संघ ने जिस प्रकार झेला और मुझे आदर दिया, मेरे प्रति श्रद्धा, निष्ठा और भावना की, उसके लिए मैं बहुत कृतज्ञ हूँ और सबके प्रति आभार प्रदर्शित करता हूं। प्रथम क्षण में ही आप लोगों ने मेरे प्रति जो सद्भावना प्रकट की है, वह भाग्य से ही मिल सकती है या गुरु के आशीर्वाद से ही मिल सकती है । मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मेरे गुरु का आशीर्वाद और आप सब लोगों की सद्भावना, दोनों मुझे एक साथ उपलब्ध हैं । मैं सचमुच गौरवशाली हूँ, भाग्यशाली हैं। __ मैं अपने भाग्य की क्या प्रशंसा करू और आप सबके प्रति गौरव की क्या बात को ? मैं केवल अपने कर्तव्य को प्रकट कर देना चाहता हूं कि आचार्यवर ने जो सेवा का कार्य मुझे सौंपा है, संघ के प्रति मुझे जो सेवा का उत्तरदायित्व सौंपा है, उस कार्य के निर्वाह के लिए मैं अपने आपको समर्पित करता हूँ। आचार्यवर के निर्देशों के अनुसार संघ की प्रगति के लिए, संघ के विकास के लिए मैं अपनी सारी प्रज्ञा को समर्पित करता हूँ। ___ अब आचार्यवर ने मुझे नामातीत बना दिया है। मेरा नाम भी समाप्त कर दिया। महाप्रज्ञ कोई नाम नहीं होता, यह तो स्वयं में एक पद है या कुछ है। कोई नाम तो नहीं होता । विशेषण है। आचार्यवर ने मुझे बिल्कुल अकिंचन बना दिया है । कम से कम व्यक्ति का नाम तो अपना होता है। उस पर अपना अधिकार तो होता है, और किसी पर हो या न हो । वह भी मेरा छीन लिया। जिस नाम को बीस-तीस वर्षों के कर्तृत्व से अजित किया, लोग जानने पहचानने लगे, वह भी समाप्त हो गया । जब नामातीत हो गया हूं तो सम्बन्धातीत भी हो गया हूँ। कोई सम्बन्ध नहीं रहा । किसी के साथ सम्बन्ध नहीं रहा; और जब किसी के साथ नहीं होता है तो सहज ही सबके साथ हो जाता है । क्योंकि जब मुनि-अवस्था में था, तब सम्बन्ध रखना भी जरूरी होता है और अपेक्षा भी होती है, किन्तु जब आचार्यवर ने मुझे यह कार्य सौंप दिया, तो किसी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहा । अतीत की कोई रेखा भी मेरे मन में नहीं हो सकती कि किस व्यक्ति ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया। कितना अच्छा किया था। कितना अप्रिय भी किसी ने किया होगा। किसी ने मेरे साथ अप्रिय व्यवहार नहीं किया, यह मैं जानता हूं। मैं इस अर्थ में भाग्यशाली रहा हूँ, किन्तु ३३२ तुलसी प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy