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________________ रहा हूँ, मैं बराबर ऐसी बातें सुनता रहा हूँ। पर मैंने कभी इन बातों की सफाई देने का प्रयत्न नहीं किया। मन में भी नहीं आया कि क्या कहा जा रहा है ? क्योंकि मैं अपने आप में स्पष्ट था। मैं मानता था कि मेरा आचार्य कितना यथार्थवादी है कि कभी ऐसी बात मुझसे कहलाता ही नहीं। कल्पना करने वाले कल्पना करते रहें । यथार्थ कुछ और है। कल्पना कुछ और चलती रहे तो उस कल्पना के लिए हमें सफाई या साक्ष्य के लिए कोई जरूरत नहीं होती । हाँ, मैं एक बात निश्चित कहता रहा कि कोई मेरा चाहे कितना ही निकट का क्यों न हो, मैं सबसे पहले आचार्य श्री को प्रसन्न रखना चाहता हूं, फिर कोई बाद में दूसरा हो सकता है। मुझसे कोई यह आशा न करे कि मैं दूसरों की प्रसन्नता के लिए इस प्रसन्नता को तराजू पर रख दू। यह अगर आशा है तो सर्वथा निराशा होगी। यह एक सचाई है और सभी लोग इसे जानते हैं । जो व्यक्ति एक सिद्धान्त को लेकर चलता है, उसके सामने ऐसी कठिनाइयाँ आती हैं। किन्तु कभी मेरी धृति ने मुझे धोखा नहीं दिया। मेरे धैर्य ने मुझे धोखा नहीं दिया। मैं जिस संकल्प को लेकर चला था, चल रहा हूँ और पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में इसी प्रकार चलता रहूँगा। जिस महान् गुरु ने मेरे जीवन का निर्माण किया, मुझे अपना विश्वास दिया और विश्वास तथा श्रद्धा ली और उस विश्वास को अब चरम बिन्दु पर सब लोगों के सामने प्रस्तुत कर दिया, उसके प्रति कुछ भी समर्पित करू, बहुत तुच्छ बात होगी। उदयपुर चातुर्मास के बाद एक दिन आत्मा (मेवाड़ का एक छोटा-सा गाँव) में आचार्यप्रवर ने मुझे अपना कुछ अन्तरङ्ग काम सौंपा । आपने कहा--२७ वर्षों के बाद आज मैं अपना कुछ अन्तरङ्ग काम पहली बार तुम्हें सौंप रहा हूँ। इस बार आचार्यप्रवर ने मुझे वह सब कुछ सौंप दिया, जो कुछ सौंपा जा सकता है । __ मैं सोचता हूं कि मैंने कभी कुछ नहीं माँगा । मेरे लिए मैंने कभी कोई माँग नहीं रखी। कभी नहीं रखी। इस बात की सचाई स्वयं आचार्य श्री जानते हैं और भी जानने वाले जानते हैं कि कभी मेरी कोई माँग नहीं थी। आप ज्ञान, दर्शन चारित्र की बात छोड़ दीजिए। मैं उसकी बात नहीं कह रहा हूँ। वह तो जीवन की शाश्वत माँग है, किन्तु किसी वस्तू की कभी कोई माँग नहीं की। केवल एक ही माँग थी कि मुझे आचार्य श्री तुलसी मिलता रहे । मुझे उपलब्ध रहे । बस इतनी माँग थी। वह मेरी माँग पूरी हुई। आचार्य श्री तुलसी मुझे उपलब्ध थे, उपलब्ध और हो गये । जब आचार्य तुलसी मुझे स्वयं उपलब्ध हो गये तो उनका जो कुछ था, वह मुझे स्वयं उपलब्ध हो गया। यह मेरी कोई माँग नहीं थी। __इस अवसर पर मैं क्या कहूँ ? तीन-चार दिनों से पता नहीं मेरी स्थिति क्या बन गई है ? शायद कुछ बोल नहीं पाता। बोलता हूँ तो भाव-विभोर हो उठता हूँ । आचार्यप्रवर के चरणों में व्यवहारतः, वास्तव में तो उनकी आत्मा में, किन्तु व्यवहार की भाषा में कहूँ तो उनके चरणों में फिर अपने सर्वस्व को समर्पित करता हूँ और यह आशीर्वाद चाहता हूँ कि गुरुदेव ! आपका आशीर्वाद मुझे निरन्तर उपलब्ध होता रहे । आपने जिस प्रकार मेरे भाग्य का निर्माण किया, उसकी पूरी सफलता सार-संभाल सब कुछ आपके कर-कमलों द्वारा निरन्तर होती रहे। खण्ड ४, अंक ७-८ ३३१
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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