SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुहराया और मुझे उस विश्वास से जितना भारी बनाया, उस विश्वास की पुनरावृत्ति के साथ-साथ मैं भी अपनी श्रद्धा की पुनरावृत्ति करना चाहता हूँ। मेरे लिए सबसे बड़ा संबल आचार्यप्रवर का इगित, निर्देश और आदेश ही होगा । उसी के अनुसार मेरे जीवन का समूचा क्रम चलेगा। मैं नन्हा-सा बालक था और छोटे-से गाँव में जन्म हुआ था। भोला-भाला था। कुछ पढ़ना-लिखना नहीं जानता था। किसने कल्पना की थी कि उसके प्रति हमारा समाज, भारतीय समाज, प्रबुद्ध समाज किन-किन संज्ञाओं से अपनी भावना प्रकट करेगा। कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था । मैं सारी बातें दोहराऊ तो लग सकता है कि गर्वोक्ति कर रहा हूँ। मैं नहीं चाहता कि गर्वोक्ति करू। किन्तु एक-दो बातें इसलिए कहना चाहता हूं कि मैं मेरी गर्वोक्ति नहीं, मैं उस कलाकार की कुशल साधना, कार्य-पद्धति और कृति का एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ कि यदि एक कुशल भाग्य-निर्माता मिलता है, तो वह किस प्रकार के व्यक्ति को भी कैसा बना सकता है। लोगों ने कहा कि आचार्य श्री आपने और भी बहुत कुछ दिया, किन्तु हमें एक विवेकानन्द दिया। पता नहीं, कौन विवेकानन्द है ? किन्तु यह आचार्य श्री की कर्तृत्वशक्ति का ही एक प्रयोग है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है। और भी न जाने कितनी बातें लोगों द्वारा कही गई और बराबर आचार्यवर के सामने दुहराई गई। ऐसे व्यक्तियों के द्वारा भी कही गई जो हमारे संघ से सर्वथा प्रतिकूल चलने वाले और विरोध रखने वाले थे । मैं मानता हूँ कि यह सारा जो कुछ हो रहा है, उसमें आचार्य श्री का कर्तृत्व एवं सृजनशीलता ही बोल रही है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है। जिस महान निर्माता ने मेरे जीवन का निर्माण किया, जिस कुशलशिल्पी ने मेरे भाग्य की प्रतिमा को गढा, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करू, बहुत छोटा शब्द है। उस भार को यह 'कृतज्ञता' शब्द उठा नहीं सकता है। और कोई दूसरा शब्द खोजू तो शायद शब्दकोश में मिलता नहीं है। सबसे अच्छा कोई शब्द हो सकता है तो यही हो सकता है कि गुरुदेव ! मैं सदा अभिन्न रहा है और इस अर्थ में ही सौभाग्यशाली होऊंगा। यह अभिन्नता सदैव बनी रहे । शाश्वत बनी रहे । कहीं भी भेद की रेखा सामने न आए। ___ एक बार भिवानी में आचार्यप्रवर ने कहा था-इतने लम्बे जीवन में एक साथ रहना और कभी मानसिक भेद न होना इसे मैं बहुत बड़ी बात मानता हूं । आचार्यप्रवर की सेवा में रहते हुए चार दशकों से भी अधिक समय बीत गया। मेरा सौभाग्य है कि मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि कहीं, कोई मन में भेद-रेखा आई हो। मैं कुछ बातें सुनता रहा हूँ, जिन्हें आज दुहराना जरूरी समझता हूं। बहुत लोग कहते हैं, मुनि नथमल को कहने का कोई अर्थ नहीं है । वे तो केवल आचार्य श्री की हाँ में हाँ मिला देंगे । उनको कहना या मन कहना कोई अर्थ नहीं । इससे भी कुछ कटु बातें मैं सुनता रहा-कुछ लोग कहते, इनको कहने का अर्थ क्या है ? आचार्य श्री कहेंगे कि शिला दो हाथ बढ़ गई, तो यह कहेंगे कि हाँ । आचार्य श्री कहेंगे कि शिला दो हाथ घट गई तो कहेंगे, हाँ ! मैं वैसे ही नहीं कह ३३० तुलसी प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy