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________________ का अर्थ है विशेष रूप से देखना । श्वास, शरीर, सूक्ष्म शरीर, चैतन्य-केन्द्र और स्पन्दनों की प्रेक्षा करने से मन एकाग्र हो जाता है। मानसिक एकाग्रता की स्थिति में तनाव कम होता है । प्रेक्षा ध्यान की साधना के लिए दस-दिवसीय शिविर में प्रशिक्षण प्राप्त किया जाता है । अब तक ऐसे कई शिविरों का समायोजन हो चुका है। शिविर-साधकों के अनुभव व संस्मरण चमत्कृत कर देने वाले हैं। अनेक साधकों ने प्रेक्षा का प्रयोग कर अपने जीवन को आमूल रूपान्तरित कर लिया है। कुछ साधक मादक पदार्थों के नशे से सर्वथा मुक्त हो गए। कुछ साधकों की अस्तव्यस्त चर्या व्यवस्थित हो गई। कुछ साधक अपनी उत्तेजना-मूलक वृत्ति में आकस्मिक परिवर्तन अनुभव कर रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रेक्षा का प्रयोग शरीर, मन और आत्मा सबकी स्वस्थता के लिए आवश्यक है। जैन विश्वभारती का 'तुलसी अध्यात्म नीडम्' अपने 'प्रज्ञा प्रदीप' [ध्यान कक्ष] में प्रति दिन प्रेक्षा ध्यान प्रशिक्षण की व्यवस्था कर रहा है। शिक्षा, साधना, शोध, संस्कृति और सेवा के क्षेत्र में युगपत् काम करने वाला संस्थान 'जैन विश्वभारती' अपने आप में एक नया प्रयोग है, यह तेरापन्थ धर्मसंघ को आचार्यश्री के शासनकाल की विशिष्ट उपलब्धि है। जैन विश्वभारती के तत्त्वावधान में ध्यान साधना की अग्रिम संभावनाओं को लेकर प्रबुद्ध लोगों को बहुत-बहुत आशाएं हैं। आचार्यश्री ने भी उन संभावनाओं को साकार रूप देने के लिए अपने महाप्रज्ञ शिष्य मुनिश्री नथमल जी को प्रेक्षा-प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया है तथा अन्य साधु-साध्वियों को भी विशेष प्रेरणा दे रहे हैं । आने वाला दशक प्रेक्षा ध्यान की उपलब्धियों का जीवन्त प्रतीक होगा, ऐसा प्रतीत होता है। आचार्यश्री तुलसी एक सुधारवादी आचार्य हैं। आप मानव सुधार की योजना क्रियान्वित करने के लिए जन-जन को जीने की कला सिखा रहे हैं। जीवन-कला से अनभिज्ञ व्यक्ति दूसरी-दूसरी कलाओं में निष्णात होकर भी कला-मर्मज्ञ नहीं बन सकता। इसीलिए आचार्यप्रवर ने सर्वोपरि मूल्य जीवन-कला को दिया है। उसके साथ अन्य कलाओं को भी आपने उपेक्षित नहीं किया, क्योंकि कला के प्रति आपका सहज झुकाव है । आपके जीवन की कोई भी गतिविधि कला-शून्य नहीं है । आप स्वयं कलात्मक जीवन जीते हैं और अपने धर्मसंघ में कला-साधना के अभ्युदय पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। यही कारण है कि साधु-साध्वियों में लिपिकला, चित्रकला, पात्र-निर्माण कला, सिलाई कला, संगीत कला, वक्तृत्व कला, लेखन कला, अध्ययन-अध्यापन की कला और रहन-सहन की कला आदि सभी क्षेत्रों में उत्तरोत्तर निखार आ रहा है। आचार्यश्री की यह कला-प्रियता व्यावहारिक सुघड़ता से शुरू होकर जीवन के बहु-आयामी व्यक्तित्व के निर्माण तक एकरूप से प्रवर्धमान रही है। इसके द्वारा आपने तेरापन्थ धर्मसंघ को भीतर और बाहर दोनों ओर से प्रगतिशील बनाया है। आचार्य भिक्षु ने दर्शन, ज्ञान और चरित्र की जिस निर्मल साधना के लिए एक धर्मसंघ की नींव डाली थी, वह आचार्यश्री तुलसी के प्रयासों से अधिक गहरी हुई है। समय के सागर में उठा हुआ कोई भी तूफान इसे प्रकम्पित करने में अक्षम है। आचार्यप्रवर का कुशल और सक्षम नेतृत्व युग-युग तक तेरापन्थ को नई देन देता रहेगा तथा संघ के ओज और तेज को बढ़ाता रहेगा, यह विश्वास है । ४३० तुलसी-प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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