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________________ २. प्रायोगिकता ३. समाधान परकता ४. वर्तमान प्रधानता ५. धर्म सद्भावना जो धर्म बुद्धिगम्य नहीं होता, जीवन की प्रयोग शाला में जिसका कोई प्रयोग नहीं होता, जो जीवन की समस्याओं को समाधान नहीं दे सकता, जो वर्तमान के लिए उपयोगी न होकर केवल अतीत या भविष्य से अनुबन्धित है तथा जो सब धर्मों के प्रति समभाव का वातावरण नहीं बना सकता, वह धर्म अपने अस्तित्व के आगे एक प्रश्नचिह्न खड़ा कर देता है । आचार्यश्री के मन में सब धर्मों के प्रति आदर के भाव हैं । आपने साम्प्रदायिक सद्भावना के लिए पच्चीस वर्ष पूर्व एक पञ्चसूत्री कार्यक्रम दिया था, जिसने भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की पारस्परिक निकटता में सेतु का काम किया है। वे पांच सूत्र हैं- १. मंडनात्मक नीति, २. वैचारिक सहिष्णुता, ३. पारस्परिक सौहार्द, ४. संतुलित व्यवहार और ५. धर्म के मौलिक तत्त्वों के प्रचार हेतु सामूहिक प्रयत्न । इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखकर आचार्यश्री ने अणुव्रत की दीप-शिखा हाथ में ली। अणुव्रत के आलोक से केवल लोक चेतना ही आलोकित नहीं हुई; तेरापन्थ धर्मसंघ भी प्रभासमान हो उठा। आज तेरापन्थ की जो छवि राष्ट्र की प्रबुद्ध जनता के सामने है, उसका बहुत कुछ श्रेय अणुव्रत आन्दोलन को है, जो आचार्यप्रवर के उर्वर मस्तिष्क की देन है। अणुव्रत को आज एक राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रतिष्ठा प्राप्त है । संसद भवन में 'अणुव्रत मंच' की स्थापना इसका पुष्ट प्रमाण है। अणुव्रत ने राष्ट्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सशक्त आवाज उठाई। जिस समय हर वर्ग के व्यक्ति का झुकाव अनैतिकता की ओर हो, उस समय नैतिक मूल्य उपेक्षित हो जाते हैं। यद्यपि नैतिकता और अनैतिकता समानान्तर रेखाओं में सदा चलती रही हैं, पर यह निश्चित है कि यदि नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए समय-समय पर विशेष अभियान न चले तो अनैतिकता सहज रूप से नैतिकता पर हावी हो सकती है । अणुव्रत सम्पूर्ण संसार को नैतिक बना देने का जिम्मा नहीं लेता, किन्तु अनैतिकता के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए वह सदा तत्पर है । तेरापन्थ को एक युगीन धर्मसंघ के रूप में प्रस्तुति देने में अणव्रत की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। प्रेक्षा-ध्यान साधना - आज का युग कुण्ठा, घुटन और तनाव का युग है । शरीर में तनाव, मांसपेशियों में तनाव, मस्तिष्क में तनाव और मन में तनाव । कोई उपचार भी तो नहीं है इस तनाव की बीमारी का । जो व्यक्ति इससे अधिक आक्रान्त हैं, वे मादक औषधियों का सेवन कर क्षणिक विश्राम पाते हैं, किन्तु औषधि का प्रभाव समाप्त होते ही वे और अधिक तनावग्रस्त हो जाते हैं । यह बीमारी सम्पन्न और विपन्न, सत्ताधीश और श्रमिक, व्यापारी और कर्मकर सब लोगों को है। भारतवर्ष में यह बीमारी जिस रूप में बढ़ रही है, भारतेतर देशों में उससे भी अधिक है । बढ़ती हुई इस बीमारी के प्रतिरोध में आचार्यश्री ने अध्यात्म की ऊर्जा जागृत करने का दिमा-दर्शन दिया । ऊर्जा-जागरण की अमोघ प्रक्रिया है ‘प्रेक्षा-ध्यान' । प्रेक्षा खण्ड ४, अंक ७.८ ४२६
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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