________________
धर्मसंघ में साधना की विशिष्ट भूमिका में रहूं और उसी माध्यम से मानव जाति की सेवा करता हुआ अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढू । संघ का दायित्व आचार्यवर किसी को भी सौंपें, उसमें न मेरा कोई हस्तक्षेप होगा और न मैं किसी व्यवस्था में भाग ही लूंगा। मैं केवल अध्यात्म की दिशा में, अध्यात्म-चेतना का जागरण करने के लिए चलता रहूंगा, चलता रहूंगा इस सम्बन्ध में मैंने कई बार आचार्यश्री से प्रार्थनाएं भी की। एक बार लिखित निवेदन भी किया ध्यान की विशेष भूमिका पर आरूढ होने के लिए, किन्तु वैसा नहीं हो सका। अब मैं सोचता हूं कि मेरी नियति यही थी या आचार्यवर ने मेरी नियति का निर्माण इसी क्रम से गुजरने के लिए किया है, इसलिए मैं कल्पना, संभावना आदि सब स्थितियों में न उलझ अपने दायित्व का निर्वहन करने की दिशा में आगे बढू । एक रहस्योद्घाटन
___ मैं अपने कुछ प्रश्न लेकर जिस समय युवाचार्यश्री के पास पहुंची तो आपने कहातुम मेरा समय लोगी या आचार्य प्रवर का भी ? मैंने निवेदन किया-जब आपके ही बारे में मुझे लिखना है तो आचार्यवर का समय लेकर क्या करूंगी? उस समय तक मेरे मन में नहीं था कि मैं आचार्यश्री से भी कुछ पूछु, किन्तु जब ऐसी बात सामने आ ही गई तब मैंने झिझकते हुए एक प्रश्न गुरुदेव से भी पूछ लिया। मेरे प्रश्न का आशय था आपने अप्रत्याशित रूप से अपने उत्तराधिकारी के मनोनयन का निर्णय लिया। इस निर्णय के पीछे कोई ठोस आधार था ? यह आपका दीर्घकालीन निर्णय था ? या किसी परिस्थिति की प्रेरणा से आपने तात्कालिक निर्णय लिया ?
___ आचार्यवर मेरी बात सुन दो क्षण मुस्कराए, फिर एक अज्ञात रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा दो वर्ष पहले (वि० सं० २०३३) में सुजानगढ़ में था, उस समय डीडवानानिवासी श्रावक जयसिंह मुणोत उपपात में बैठा था। वह पामिस्ट तो था ही, विशिष्ट ज्योतिर्विद भी था। उसने मेरे हाथ की रेखाएं देखी । मैंने कहा - कोई विशेष बात ध्यान में आए तो बताना । वह कुछ गंभीरता से रेखाओं पर दृष्टि टिकाकर बोला-गुरुदेव ! मैं दो महत्वपूर्ण बातें निवेदन करूंगा (१) आप अपनी आयु के ६५वें वर्ष में अपना उत्तराधिकारी घोषित करेंगे। (२) आप जिसे अपना उत्तराधिकारी बनाएंगे, उसका पहला अक्षर 'म' होगा।
। ये दोनों बातें नोट कर ली गई । उस समय मेरा न कोई चिन्तन था और न किसी तात्कालिक निर्णय का प्रश्न था । किन्तु फिर भी मैंने मकारादि मुनियों पर दृष्टिपात किया। मेरी नजर चारों ओर घूमी, किन्तु वह कहीं भी स्थिर नहीं हुई। उसके बाद मैं एक प्रकार से उस बात को भूल-सा गया। वि० सं० २०३५ का मेरा चातुर्मास गंगाशहर था। वहां मैंने मुनि नथमल जी को महाप्रज्ञ की उपाधि से अलंकृत किया । किन्तु इस अभिक्रम में मेरा . कोई विशेष लक्ष्य नहीं था। क्योंकि अब तक मैंने कभी निर्णायक रूप से कोई चिन्तन ही नहीं किया था । उस उपाधि की अभिधारूप में परिणति अनायास ही हुई या उस ज्योतिर्विद की भविष्यवाणी को सत्यापित करने के लिए हुई, कहा नहीं जा सकता । पर मेरे मन में ऐसा कुछ भी नहीं था। यह सब कुछ घटित हो जाने पर एक दिन मेरे मस्तिष्क में सुजानगढ
खण्ड ४, अंक ७-८
३४५