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________________ साधना से इतना भावित है कि उस पर किसी प्रकार के भार का अनुभव होता ही नहीं। दूसरी बात-मुझे आचार्यवर का साक्षात् सान्निध्य उपलब्ध है, इसलिए भी मैं अपने आप में बहुत हल्का हूं। "बाह्य व्यक्तित्व के सन्दर्भ में मैं अपने आप में भी और वातावरण में भी एक परिवर्तन देख रहा हूं । इन दिनों मुझे एक चिन्तन बार-बार आन्दोलित कर रहा है कि आचार्यवर ने मुझं इतना बड़ा दायित्व सौंपा और समूचे संघ ने उसके प्रति इतना उल्लास व आनन्द प्रदर्शित किया। केवल तेरापंथ समाज ही नहीं, व्यापक रूप से मेरे प्रति जो आकांक्षाएं संजोई जा रही हैं, उससे मेरा दायित्व और अधिक व्यापक हो जाता है। उन सब आकांक्षाओं की पूर्ति मैं कैसे करूं, यही विचार मुझे बार-बार उत्प्रेरित करता रहता है।" ____ अगले प्रश्न में मैंने यूवाचार्यश्री की साधना और साहित्य-लेखन में अवरोध की बात उपस्थित की तो आपने फरमाया - यह निर्णय यदि पांच-दस साल पहले होता तो मेरी साधना और लेखन दोनों में अन्तर आता। किन्तु यह काम एक अवधि के बाद हुआ, इसलिए मेरे सामने कठिनाई या अवरोध जैसी कोई स्थिति नहीं है। क्योंकि साधना की एक सीमा मैं अतिक्रान्त कर चुका हूं और लेखन को भी अब वक्तृत्व में बदल चुका हूं। प्रशासन भी मेरी रुचि आपकी रुचि प्रशासन है या ध्यान ? इस प्रश्न को उत्तरित करते हुए युवाचार्यश्री ने कहा – मेरी काम करने की पद्धति यह रही है कि या तो मैं कोई काम करूं नहीं, करूं तो पूरी रुचि के साथ करूं । अस्वीकार या पूरी तन्मयता इन दोनों मार्गों में से एक मार्ग का निर्धारण कर मैं चलता हूं । अतः प्रशासन को भी अपनी रुचि का अंग बनाकर ही चलूंगा। रुचि-निर्माण के स्थान पर रुचि के अनुरूप काम हाथ में लेने का प्रश्न आता तो मैं इस सम्बन्ध में कुछ निवेदन भी करता, पर ऐसा अवकाश ही मुझे नहीं मिला। दूसरी बात यह है कि दूसरों के सामने किसी भी काम के स्वीकार या अस्वीकार में मैं पूरी स्वतंत्रता का उपयोग करता हूं, किन्तु आचार्यवर का जो आदेश मिल जाता है, उसके सर्वथा अस्वीकार की बात मेरे लिए बहुत कठिन हो जाती है। जिस समय आचार्यश्री ने मुझे अपने सामने खड़ा होने का निर्देश दिया, मैं एक बारगी स्तब्ध रह गया । मुझे लगा-मैं कोई स्वप्न देख रहा हूं या यथार्थ के धरातल पर खड़ा हूं। नियति का निर्माण ___ आपने अपने बारे में कभी ऐसी कल्पना की थी क्या ? अपने भविष्य के सम्बन्ध में आपका क्या चिन्तन था ? मेरी इस जिज्ञासा के समाधान में आपने कुछ ज्योतिर्विदों के और कुछ अपने प्रातिभ ज्ञान-सम्बन्धी नए रहस्यों का उद्घाटन किया । फिर चिन्तन के स्तर पर कुछ बिन्दुओं को स्पष्ट करते हुए कहा - मैं तेरापंथ संघ की सेवा का कुछ विनम्र प्रयत्न कर चुका हूं । अब मेरी इच्छा थी अध्यात्म के व्यापक क्षेत्र में समग्र मानव जाति की सेवा । इस चाह ने मुझे चिन्तन का नया परिवेश दिया। उस परिवेश में मेरी कल्पना थी मैं अपने ३४४ तुलसी प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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