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साधना की तीव्र अभीप्सा तथा दायित्व-बहन की उदग्र आकांक्षा। इन सब विशेषताओं के धनी हमारे युवाचार्य महाप्रज्ञ आचार्यश्री तुलसी की सुखद सन्निधि में अपनी चेतना के विशिष्ट केन्द्रों में विस्फोट कर धर्मसंघ में नई ऊर्जा को संचरणशील करते रहेंगे, ऐसा विश्वास है।
युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ अपनी साधना, बौद्धिकता और दार्शनिकता के द्वारा देश के क्षितिज पर उभर कर सामने आए हुए हैं। आपके जाने-पहचाने व्यक्तित्व के सम्बन्ध में मैं कुछ लिखू, इसकी अपेक्षा अधिक अच्छा यह होगा कि इस सर्वोच्च पद पर अभिषिक्त होने के बाद उनकी प्रतिक्रिया, मनःस्थिति और भावी कार्यक्रम के सम्बन्ध में सही जानकारी प्रस्तुत करू।
पहली प्रतिक्रिया
___इस प्रस्तुति के लिए मैं १५ फरवरी को मध्याह्न में युवाचार्यश्री के पास पहुंची। यद्यपि वह समय उनके विश्राम का था, फिर भी उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ मेरी जिज्ञासाओं को समाहित करने की स्वीकृति दे दी। वहां जाने से पहले मन में थोड़ा संकोच
और भय था, पर युवाचार्यश्री की सहज और मधुर आत्मीयता ने मेरी झिझक समाप्त कर दी। मैंने सारी औपचारिकताओं को छोड़कर अपना पहला प्रश्न किया- आचार्यश्री ने आपको तेरापंथ धर्मसंघ के सर्वोच्च पद पर अप्रत्याशित रूप से प्रतिष्ठित कर दिया। संभव है, उस समय आप स्तब्ध रह गए हों। किन्तु जब आपको इस सम्बन्ध में एकान्त क्षणों में कुछ सोचने का अवकाश मिला, इस घटना की आपके मन पर पहली प्रतिक्रिया क्या हुई ?
मेरे इस प्रश्न ने एक क्षण के लिए युवाचार्यश्री को गंभीर बना दिया। अपनी गंभीरता को सहजता में रूपायित कर आप बोले इस नियुक्ति के बाद मेरे मन में यह आया कि आचार्यश्री ने मुझे समाज के उस स्थान पर प्रतिष्ठित किया है, जहां व्यक्ति व्यक्ति नहीं रहकर स्वयं समाज बन जाता है। उसे पूरे समाज को आत्मसात् करना होता है। उसके लिए न केवल समाज को साथ लेकर ही चलने की अपेक्षा है, अपितु उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर चलना जरूरी है। मैं अकेलेपन की स्थिति में अधिक रस लेता था, पर यह न नियति को इष्ट था और न स्वयं आचार्यश्री को ही । इसलिए मैं एक व्यक्ति से समाज में रूपान्तरित हो गया। इस भूमिका पर आरूढ होने के बाद आचार्य प्रवर ने जो गुरुतर दायित्व मुझे सौंपा है, उसके समुचित निर्वाह हेतु मैं अधिक शक्तिस्रोतों की आवश्यकता अनुभव करता हूँ। आचार्यवर के आशीर्वाद, अपनी अध्यात्म-साधना और समग्र समाज की सद्भावना, इस त्रयी के योग से मैं उन शक्तिस्रोतों को उद्घाटित करू', यह मेरी पहली प्रतिक्रिया है।
___ युवाचार्यश्री की यह प्रतिक्रिया मुझे स्वाभाविक नहीं लगी। इसलिए मैंने : सी विषय को आगे बढ़ाते हुए पूछा-यह दस-बारह दिनों का समय आपको कैसा लगा ? क्या आप अपने भीतर कोई परिवर्तन अनुभव कर रहे हैं ? .
युवाचार्यश्री ने सहजभाव से उत्तर दिया जहां तक मेरे अन्तःकरण या भीतरी व्यक्तित्व का प्रश्न है, वहाँ तक मुझे अस्वाभाविक जैसा कुछ भी नहीं लगता, क्योंकि मेरा मन
खण्ड ४, अंक ७-८
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