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मुनि तुलसी बाईस वर्ष की उदीयमान युवावस्था में तेरापंथ संघ के एक मात्र आचार्य बन गए । मुनि नथमल जी को कुछ अटपटा सा लगा। उन्होंने अनुभव किया कि उनके विद्या-गुरु उनसे छीन लिए गए हैं । किन्तु शीघ्र ही उनको संभाल लिया गया। धर्मसंघ का संपूर्ण दायित्व पूरी कुशलता से निभाहते हुए भी आचार्यश्री तुलसी बाल मुनियों की बौद्धिक चेतना का जागरण करने के लिए भी सतत जागरूक थे। उन्होंने इस दिशा में नएनए सपने संजोए। उन सपनों को साकार करने वालों में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं हमारे युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ । युवाचार्य आचार्यश्री के प्रति जितने समर्पित रहे हैं, कोई विरल बौद्धिक व्यक्ति ही रह सकता है ।
सफल भाष्यकार
तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य आचार्यश्री भिक्षु के सफल भाष्यकार रहे हैं। इसी श्रृंखला में यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ भी आचार्यश्री तुलसी के सक्षम भाष्यकार हैं। आचार्यश्री द्वारा सूत्र-रूप में प्राप्त तथ्यों को आपने जिस विस्तार से विश्लेषित किया है, उसने आपकी मेधा को नया निखार दे दिया। केवल तेरापंथ या जैन समाज ही नहीं समग्र भारतीय समाज पर आपकी प्रत्युत्पन्न मेधा और गंभीर दार्शनिकता का प्रभाव है। साहित्य के क्षेत्र में आपने मौलिक सृजन की दिशा में जो कीर्तिमान स्थापित किया है, वह इस युग के साहित्यकारों की चेतना को झकझोरने वाला है। लेखक की सबसे जीवन्त रचना वही होती है, जिसे पढ़ने से ऐसा प्रतीत हो कि लेखक का जीवन इसमें बोल रहा है। युवाचार्यश्री ने अपनी सृजन-चेतना में जीवन की चेतना का संप्रेषण कर साहित्य-जगत को उपकृत किया है।
अम्युदय की यात्रा
साधना, शिक्षा और साहित्य की त्रिवेणी में सतत अवगाहन कर युवाचार्यश्री ने अपने व्यक्तित्व का अन्तर्मुखी निर्माण किया । आपकी सन्निधि से अन्य व्यक्ति भी लाभान्वित हों, इस दृष्टि से वि० सं० २००४ रतनगढ़ में आपको साझ (आचार्यश्री के साथ रहने वाले मुनियों के समूह) का अग्रगण्य नियुक्त किया गया। इसी क्रम में वि० सं० २०२२ माघ शुक्ला सप्तमी (हिसार) को आप निकाय-सचिव के गरिमामय सम्मान से सम्मानित हुए। ज्ञातव्य है कि इससे एक साल पूर्व आचार्यश्री ने निकाय-व्यवस्था का एक प्रयोग अपने धर्मसंघ में किया था। प्रबन्धनिकाय, व्यवस्थानिकाय, शिक्षानिकाय और साधना-निकाय-इस चतुनिकाय-व्यवस्था के मुख्य सचिव का दायित्व आपको मिला और आपने कुशलता के साथ उसका निर्वहन किया। वि० सं० २०२६, माघ शुक्ला सप्तमी (हैदराबाद) के दिन आपने निकायपद का विसर्जन किया। जिसे अपनी स्वीकृति देकर आचार्यश्री ने उस सामयिक निकाय-व्यवस्था को स्थगित कर दिया। वि० सं० २०३५ के गंगाशहर चातुर्मास में कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी को आप 'महाप्रज्ञ' की विशिष्ट उपाधि से अलंकृत हुए और इसी वर्ष मर्यादामहोत्सव के भव्य समारोह में युवाचार्य महाप्रज्ञ बन गए । यह है आपके अभ्युदय की छोटीसी यात्रा, जिसमें झांक रही है अबोध शिशु सी निश्छलता, स्त्री-सुलभ समर्पण, ज्ञान और
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तुलसी प्रज्ञा