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लौट आए उस मर्यादा-महोत्सव-पण्डाल में और आचार्यवर ने ऊचे स्वर से उद्घोषणा कीखड़े हो जाओ मुनि नथमल जी।
___ हजारों-हजारों श्रोताओं के नयन-युगलों से निसृत होने वाली रश्मियां अब दो ही व्यक्तियों पर टिकी थीं। वे व्यक्तित्व हैं - युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी और महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी। आचार्यवर ने अपना उत्तराधिकार लिखित और मौखिक दोनों प्रकार से मुनिश्री नथमल जी को सौंपकर उन्हें युवाचार्य के रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुति का नयनाभिराम दृश्य दर्शकों के प्राणों को ठेठ तक छू गया। युवाचार्य के गौरवमय पद से अभिषिक्त होते ही मुनिश्री नथमल जी 'युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ' की अभिधा में रूपान्तरित हो गए। एक अठावन वर्षीय प्रौढ व्यक्तित्व की सशक्त भुजाओं पर धर्मसंघ का समग्र दायित्व नियोजित कर आचार्यश्री तुलसी ने अष्टमाचार्यश्री कालूगणी की भांति चौंका देने वाला इतिहास भले ही न दोहराया हो, पर एक दूरदर्शितापूर्ण सूझबूझ का परिचय देकर भारतीय लोक-मानस की अध्यात्म-चेतना को ऊर्ध्वारोहित होने का विरल अवसर प्रदान किया है।
परिचय परिवार का
. युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ का शैशव एक छोटे से कस्बे (टमकोर) में बीता । आपका जन्म वि० सं० १९७७ आषाढ कृष्णा त्रयोदशी (१४ जून १९२०) को हुआ। आपके पिताश्री का नाम तोलाराम जी चोरड़िया और माता का नाम बालूजी (साध्वी) था। आप अपनी दो बहिनों के इकलौते भाई थे। पिता का साया बचपन में ही आपके सिर से उठ गया। मां के सहज धार्मिक संस्कारों से अनुप्राणित आपकी चेतना संतों के संपर्क से उबुद्ध हो गई। वि० सं० १९८७ माघ शुक्ला दसमी के दिन आपने सरदारशहर में पूज्य गुरुदेव कालूगणी के कर कमलों से दीक्षा स्वीकार की। आपकी मां (साध्वी बालूजी, अब दिवंगत) भी आपके साथ - साध्वी-जीवन में दीक्षित हो गई। कालान्तर में आपकी एक सहोदरी (साध्वी मालूजी) ने भी आपके पथ का अनुसरण किया। शंभू से महाप्रज्ञ
दस साल का वह मासूम बच्चा यथार्थ के धरातल पर खड़ा होकर कठोर साधना के प्रति समर्पित हुआ या अपने धर्माचार्य के वात्सल्य को पाकर अभिभूत हुआ ? कहा नहीं जा सकता। किन्तु जिस दिन से उसने धर्मसंघ में प्रवेश पाया, स्वर्गीय आचार्य कालगणी की असीम कृपा से वह आप्लावित हो गया। कालूगणी ने शैक्ष मुनि को शिक्षित और संस्कारित करने की पूरी जिम्मेवारी सौंप दी मुनि तुलसी को । सोलह वर्षीय मुनि तुलसी ने केवल मुनि नथमल जी को ही नहीं उनके समवयस्क कई बाल मुनियों की पतवार अपने हाथ में ली और अत्यन्त कुशलता से उनकी जीवन-नौका खेनी शुरू कर दी। कठोर अनुशासन और कोमल वात्सल्य ने बाल मुनि की प्रसुप्त प्रज्ञा के केन्द्र में अप्रत्याशित विस्फोट किया। उस विस्फोट का ही परिणाम है कि बंगू, हाबू और शंभू नामों से पहचाने जाने वाले मुनि नथमल जी ने युवाचार्य महाप्रज्ञ की ऊंचाई का स्पर्श कर लिया।
खण्ड ४, अंक ७-८
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