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________________ वाली स्मृति उभर आई और मैंने अनुभव किया कि किस प्रकार सहजभाव से किया गया कार्य भी किसी घटना के साथ जुड़ जाता है। "मर्यादा-महोत्सव के अवसर पर अपने निर्णय को उद्घोषित करके मैं स्वयं एक निश्चिन्तता का अनुभव कर रहा हूं। इस सन्दर्भ में इतना अवश्य ज्ञातव्य है कि मेरे सामने न तो किसी परिस्थिति की विवशता थी और न ही कोई दूसरी समस्या। मैंने अपने तटस्थ चिन्तन के आधार पर जैसा उचित समझा, वैसा किया। अपने धर्मसंघ की शालीन और गौरवमयी परंपरा के अनुसार साधु-साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं तथा अन्य प्रबुद्ध लोगों ने मेरे निर्णय का स्वागत किया, इसकी मुझे प्रसन्नता है। मैं अब भी अपनी कार्य-क्षमता में किसी प्रकार की कमी का अनुभव नहीं करता हूं, इस दृष्टि से मैं चाहता हूं युवाचार्य महाप्रज्ञ अपनी साधना के चालू क्रम को निर्विघ्न रूप से आगे बढ़ाएं । साधना के तेज से अपने बहुआयामी व्यक्तित्व को निखार कर वे विनम्र भाव से धर्मसंघ को सेवाएं देते रहें। तनाव तथा संत्रास से आक्रान्त संपूर्ण मानव-जाति को मानसिक शान्ति की दिशा में अग्रसर करते रहें।" भावी योजना आचार्यश्री द्वारा किए गए रहस्योद्घाटन से पाठकों को परिचित करा मैं पुनः युवाचार्यश्री के चिन्तन की यात्रा कराने ले जा रही हूं। पिछले प्रश्नों की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा-आप अपने नेतृत्व में धर्मसंघ को कौन-सा नया मोड़ देना चाहेंगे ? प्रश्न की गंभीरता के अनुरूप गंभीर आकृति से गंभीर तथ्य प्रकट करते हुए युवाचार्यश्री ने अपने भावी कार्यक्रम को संभावना को अभिव्यक्त करते हुए कहा-हमारे सामने दो बातें हैं अध्यात्म और समाज । समा शक्तिशाली तब बनता है, जब वह अध्यात्म से अनुप्राणित हो, जब उसमें सांस लेने वाला हर व्यक्ति सशक्त हो। आचार्यवर ने जब मुझे समाज में काम करने का अवसर दिया है, तो मैं चाहूंगा कि मेरा दर्शन समाज में क्रियान्वित हो । सुकरात का नाम सुना होगा तुमने । उसका यह सिद्धान्त था कि शास्ता किसी दार्शनिक को होना चाहिए। दार्शनिक शास्ता अपनी जनता को जीवन-दर्शन की गहराई से परिचित करा सकता है और उसे तदनुरूप व्यवहार भी दे सकता है । ___मेरी आकांक्षा यह है कि सबसे पहले व्यक्ति अपने जीवन का निर्माण करे। वह व्यक्तिगत निर्माण की बात को प्राथमिकता दे और संघ-सेवा का काम उसके अनन्तर क्रियान्वित करे । जीवन-निर्माण का यह दर्शन मुझे आचारांग से उपलब्ध हुआ है । वहां एक सूक्त है--प्रावोलए, पवीलए निवोशए-इस एक सन्दर्भ में मुनि के समग्र जीवन का स्पष्ट निदर्शन है । दीक्षित होने के बाद मुनि सबसे पहले अध्ययन और साधना में अपना जीवन लगाए, यह आपीडन है । उसके बाद वह संघ से जो सेवा ली है, उसका ऋण चुकाए, यह प्रपीडन है, और ऋण-मुक्त होने के बाद समाधिमरण की तैयारी करे, यह निष्पीडन है; मैं चाहता हूं, मेरा यह दर्शन हमारे धर्मसंघ में क्रियान्वित हो । ३४६ तुलसी प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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