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युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ : आचार्य तुलसी के दर्पण में
प्रस्तोता : मुनि किशनलाल
श्रद्धास्पद आचार्य प्रवर ! नमन है आपके कर्तत्व को । समर्पित है सारा संघ आपके विलक्षण व्यक्तित्व पर । मेरे मानस में कुछ प्रश्न उभर रहे हैं, जिसका समाधान आपके श्रीमुख से पाना चाहता हूं।
प्रश्न--आपने अपने महान् उत्तरदायित्व की घोषणा आकस्मिक क्यों पसन्द की? जबकि लाखों-लाखों लोग इस ऐतिहासिक क्षण के दर्शन के लिए लालायित थे।
उत्तर यह आचार्य का व्यक्तिगत मामला है। इसका संपूर्ण दायित्व आचार्य पर होता है कि वह इस महत्त्वपूर्ण कार्य को किस प्रकार संपन्न करे । यह उसके मन की बात होती है । हमारे पूर्वाचार्यों ने भी कभी इस कार्य को प्रच्छन्न रूप में करना पसन्द किया, तो कभी पहले से सूचित कर दिया। कभी पहले सूचित किया, तो कभी ऐसा नहीं किया। मैंने सोचा कि इस कार्य को करना अवश्य है। किन्तु पहले सूचित कर देने से कार्य का उतना आकर्षण नहीं रह जाता है। आकस्मिक किया गया काम कई दृष्टियों से लाभप्रद होता है और उल्लास का वातावरण भी जितना आकस्मिक का होता है, उतना पहले से घोषित किए गए कार्य का शायद नहीं होता।
एक कठिनाई और है। इस कार्य के लिए पहले से घोषणा कर दी जाती, तो इतनी जनता उपस्थित हो जाती कि उसे व्यावहारिक दृष्टि से संभालना कठिन होता। मर्यादामहोत्सव के अवसर पर वैसे ही बीस-पचीस हजार आदमी इकट्ठ हो जाते हैं और यदि इसकी पहले से घोषणा कर देता, तो लाखों लोग इकट्ठ हो सकते थे । यदि एक लाख आदमी अनायास उपस्थित हो जाएं तो उन सबकी व्यवस्था कितनी कठिन हो सकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । फिर यह शीतकाल का समय है। इस समय में व्यवस्था और कठिन होती है। इन्हीं सब दृष्टियों से मैंने आकस्मिक घोषणा करनेका निर्णय लिया।
प्रश्न-लाखों लोग इस ऐतिहासिक दृश्य को देखने से वंचित रह गए। वे लोग उपालंभ की भाषा में निवेदन करते हैं कि आचार्यवर को हमें इस महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम से वंचित नहीं करना था ?
उत्तर - मैंने इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए कितना महत्त्वपूर्ण अवसर ढूंढा । यह उन लोगों को सोचना चाहिए, जो नहीं पहुंच पाए। मर्यादा-महोत्सव का ऐसा अवसर है, जिस
तुलसी प्रज्ञा