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________________ पर जहां तक संभव हो सके, सभी को उपस्थित रहना चाहिए । जो उपस्थित नहीं हो सके, यह उनकी त्र ुटि है । मैं इसमें क्या कर सकता हूं ? यदि मैं गुपचुप करता, तो कोई ऐसा कह सकता था । जबकि मैंने इस कार्य के लिए मर्यादा - महोत्सव का अवसर चुना। इस अवसर पर भी जो लोग अपनी नींद न उड़ाएं, उनके लिए मैं क्या कर सकता हूं ? जो लोग इस महत्त्वपूर्ण अवसर पर नहीं पहुंचे हैं, वे जीवन भर महसूस करेंगे कि एक सुन्दर अवसर से वंचित रह गए । दूसरी बात यह है कि यदि मैं पहले से भी घोषणा कर देता, तो भी लाखों लोग वंचित रह जाते। सभी लोग कैसे पहुंच सकते थे ? जो आ गए सो आ गए, जो रह गए सो रह गए । प्रश्न - युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के निर्वाचन के लिए उनकी कौन-कौन सी विशेषताएं आपको आकृष्ट कर सकीं ? उत्तर - उनकी अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं । मैं उन सबको कैसे बतला सकता हूं? मेरे साथ इनका सदा से ही अद्वैत रहा है । मैं नहीं समझता कि कौन-सी विशेषता का अंकन करूं और कौन-सी विशेषता को छोडूं ? किन्तु कुछ बातें रख देना आवश्यक समझता हूं । पहली बात तो यह है कि उनका मेरे प्रति जो समर्पण भाव दीक्षा लेने के बाद हुआ और आज तक है, वह विलक्षण है । मैं स्वयं इसे बहुत कठिन बात मानता हूं । यह बहुत कठिन चीज है । बचपन में समर्पण होना एक बात है, किन्तु बौद्धिक बनने के बाद, शिक्षित होने के बाद और बहुत बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद ऐसा समर्पण भाव कठिन होता है । युवाचार्य तो अब बने हैं । किन्तु उससे पहले भी समाज में इनकी प्रतिष्ठा कम नहीं थी । अपने समाज में ही नहीं, सारे समाजों में भी इनकी प्रतिष्ठा थी । ऐसी स्थिति में भी इनका समर्पण भाव सदैव एक समान रहा । इनके इस समर्पण भाव ने मुझे बहुत आकृष्ट किया । दूसरी बात यह है कि जिन-जिन क्षेत्रों में इन्होंने ज्यों-ज्यों विकास किया, फूल के साथ कांटा आता है, मेघ के साथ आंधी आती है और प्रकाश के साथ कज्जल आता है, किन्तु विकास के साथ इनमें किसी भी प्रकार का अहंकार नहीं देखा । यह कोई कम महत्त्व - पूर्ण विशेषता नहीं है । ये जितने निरहंकारी बचपन में थे, उतने ही विकास के समय रहे । मैं यह भी कह सकता हूं कि ये जैसे-जैसे विकास करते गए, वैसे-वैसे और अधिक विनम्र बनते गए । तीसरी सबसे बड़ी विशेषता है चरित्र की । इस पद के लिए, इस गरिमापूर्ण पद के लिए जिस सर्वाधिक विशेषता का अंकन किया जाता है, वह है चरित्र - संपन्नता । मैंने इनमें अक्षुण्ण चरित्र-संपदा को पाया । शिक्षा, साहित्य, लेखन, वक्तृत्व आदि-आदि जितनी भी कलाएँ हैं, जितने भी गुण हैं, वे सब साधु के लिए एक तरफ हैं, चरित्र-संपन्नता सबसे बड़ी चीज़ है । मैं इसे बहुत महत्त्व देता हूं । चौथी विशेषता यह है कि जब ये किसी गुरुतर दायित्व पर नहीं थे, तो भी संघ की ३६५ खण्ड ४, अंक ७-८
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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