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________________ बहुत-सी गतिविधियों की आर्त-गवेषणा करते रहते थे। संघ में किन चीजों का, किस प्रकार विकास होना चाहिए, इस पर ये बराबर चिन्तन करते रहते थे और अपनी भावना मेरे सामने रखते थे। इससे भी यह अंकन करने का अवसर मिला कि जो व्यक्ति पहले से ही संघ-विकास के लिए इतना चिंतन करता है, वह दायित्व देने के बाद, उस दिशा में और अधिक प्रयत्न करेगा। इन सब विशेषताओं को देखकर मैंने इन्हें अपना दायित्व सौंपा । में ऐसा सोचता हूं कि मैंने यह निर्णय करके संघ का बहुत बड़ा हित किया है। प्रश्न-लोग आपके इस निर्वाचन से बहुत प्रसन्न हैं । आपने जो पद प्रदान किया है, उससे भी अधिक लोग युवाचार्य श्री का मूल्याकंन करते हैं। किन्तु अवस्था को लेकर लोगों के मन में विचार आ सकता है। किसी युवक को अगर इस पद पर लाते, तो युवाजगत धर्म की ओर आकर्षित होता । इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ? उत्तर-युवकत्व और वार्धक्य मात्र उम्र सोचना एकांगी बात है। साठ वर्ष की अवस्था में एक ऐसा युवक हो सकता है, जो लाखों व्यक्तियों में पचीस-तीस वर्ष की अवस्था में भी नहीं हो सकते । युवकत्व का संबंध अवस्था से उतना नहीं है, जितना कार्य से है, विचारों से है और क्षमता से है । मैं तो इन्हें इन सब चीजों की दृष्टि से वृद्ध नहीं मानता हूं। इस अवस्था में भी आज ये जितना युवा-पीढी को आकृष्ट कर रहे हैं, शायद हजारों युवक नहीं कर सकते हैं । जब मैं स्वयं अपने को युवक मानता हूं, तो मेरे से सात वर्ष ये छोटे हैं, बूढा कैसे मानूं ? सभी दृष्टियों से मैं इन्हें किसी युवक से कम नहीं मानता हूं। प्रश्न- आपके प्रवचनों से लगा कि आपने बहुत थोड़े समय में ही यह निर्णय लिया और आकस्मिक रूप में ही घोषणा की। इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ? उत्तर-निर्णय करना एक बात है और क्या करना है, इसका चिन्तन करना दूसरी बात है। निर्णय मैंने बहुत पहले नहीं लिया, किन्तु मस्तिष्क में चिन्तन तो मेरा था ही। मेरे संघ में जितने साधु हैं, वे एक-एक मेरे से अज्ञात नहीं हैं, अपरिचित नहीं हैं। मैं सबको भली-भांति जानता हूं और तुलनात्मक दृष्टि से भी सबको देखता हूं। निर्णय मैंने आकस्मिक रूप से घोषित किया, किन्तु मेरे चिन्तन में, मेरे दिमाग में बहुत पहले से था। मैंने अपने प्रवचन में भी कहा था कि एकाधिक साधु मेरे सामने हैं । बल्कि मुझे कहना चाहिए कि साध्वियां भी ऐसी हैं, अगर मैं उनको मेरा संपूर्ण दायित्व सौंप दूं, तो बहुत अच्छे ढंग से आचार्य-पद का दायित्व संभाल सकती हैं । यह हमारे धर्मसंघ के लिए गौरव की बात है। फिर भी उन सबकी तुलना में मैंने देखा तो सर्वाधिक योग्य इन्हें पाया । इसलिए मैंने इनका निर्वाचन किया। प्रश्न-युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के माध्यम से आप विश्व को किस ओर गतिशील देखना चाहते हैं ? उत्तर-मैं विश्व से पहले आत्मा की बात करना चाहता हूं। मैं युवाचार्य को समग्रतया आत्मस्थ देखना चाहता हूं और ठियप्पा - स्थितप्रज्ञ के रूप में देखना चाहता हूं। इसके लिए इनको कुछ करना नहीं पड़ेगा । आज इनके भीतर से जो ऊर्जा निकल रही है, उससे हजार गुना अधिक निकलेगी और वह विश्व के लिए बहुत हितकारी बनेगी। अपने तुलसी प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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