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आपको छोड़कर विश्व की बात करना बेकार है । सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं आत्मस्थ बनना चाहिए और उसके बाद विश्व की बात करनी चाहिए । फिर भी जो एक तनावपूर्ण वातावरण है, एक बेचैनी और अशान्ति संसार में फैली हुई है, उसे मिटाने में भी इनके द्वारा बहुत बड़ा सहारा मिलेगा। इनके माध्यम से मुझे काम करने का अवसर मिलेगा और मेरे माध्यम से इन्हें काम करने का मौका मिलेगा । मैं चाहता हूं कि विश्व में एक ऐसा वाता - वरण बने, आज जो अध्यात्म थोड़ा धूमिल हो रहा है, वह अध्यात्म विकास में आए और दूसरी बातें गौण हो जाएं । यह बात मैं इनके माध्यम से कराना चाहता हूं । प्रेक्षा का एक ऐसा सक्षम माध्यम मिल गया है, जिसके द्वारा भी संसार के प्रबुद्ध मानस को शान्त और उन्नत देखना चाहता हूं ।
प्रश्न - अपना उत्तरदायित्व सौंपने के बाद क्या आप ध्यान और योग की विशेष
साधना में लगना चाहेंगे ?
हूं
उत्तर - मैं ध्यान योग की साधना से अपने को अब भी अलग नहीं मानता हूं । वर्तमान में भी मैं ध्यान और योग की साधना में और अगर मुझे विशेष अवकाश मिलेगा, तो और भी अधिक लगाना चाहूंगा । वर्तमान में इनकी जो साधना चल रही है, मैं उसमें और अधिक गति देखना चाहता हूं । मैं अपने आपको अपने दायित्व से संलग्न रखकर इनको और अधिक अग्रसर करना चाहता हूं। वर्तमान में भी मैं योग-साधना से उपेक्षित नहीं हूं, किन्तु इस विषय में इन्होंने जो एक अच्छी प्रक्रिया अपनाई है, मैं अपने आपको गौण करके भी उस दिशा में इन्हें और अधिक गतिशील देखना चाहता हूं ।
प्रश्न
- युवाचार्य श्री की घोषणा का धर्मसंघ ने जिस उल्लास से स्वागत किया है, उसका आपके मानस पर क्या प्रतिबिम्ब है ?
उत्तर-- हमारे धर्मसंघ ने जिस हर्ष और उल्लास से स्वागत किया है, वह मेरे लिए कोई नई बात नहीं है । यह बात मेरे चिन्तन से परे की नहीं है । मैं ऐसा सोचता ही था, ऐसा समझता ही था । जैसे मैंने सोचा था, वैसा ही हुआ है । इतना जरूर है कि हर कार्य में कुछ किन्तु परन्तु रहती है। सौ में से एक व्यक्ति मिल ही जाता है, जो अच्छे से अच्छे कार्य के बारे में कह सकता है कि ऐसा होता तो और ठीक होता । किन्तु मेरी इस घोषणा को, इस निर्वाचन को लेकर मैंने किन्तु परन्तु भी नहीं सुनी। यह हमारे धर्मसंघ का सौभाग्य है | अपने धर्मसंघ के प्रति लोगों में जो अटूट निष्ठा है, उसे मैं बहुत बड़ी बात मानता हूं । मेरी इस घोषणा से धर्मसंघ की आयु बहुत बढ़ गई है और धर्मसंघ की नींव पाताल में चली गई है, ऐसा लगता है | मेरा धर्मसंघ प्रसन्न है, इसलिए में भी बहुत प्रसन्न हूं ।
प्रश्न - आप एकतंत्र एवं जनतंत्र, इन दोनों प्रणालियों में किसे राष्ट्र के हित में मानते हैं ?
उत्तर - एकतंत्र और जनतंत्र की अपनी-अपनी अच्छाइयां और बुराइयां होती हैं । किन्तु मेरा विश्वास आत्मतंत्र में है । हमारे यहां एकतंत्र एवं जनतंत्र नहीं, अध्यात्मतंत्र है । जब तक आत्मतंत्र का विकास नहीं होता है, तब तक एकतंत्र एवं जनतंत्र दोनों खतरनाक बन सकते हैं ।
खण्ड ४, अंक ७-८
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