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________________ योग से आगे बढ़कर सामर्थ्ययोग को सिद्ध करने के लिए कितने उत्सुक थे । अन्तर्मुख या आत्माभिमुख व्यक्ति ही कीर्ति, नाम और कामनाओं से अलिप्त रहकर ऐसी उत्सुकता रख सकता है। मुझे यह भी प्रतीत होता है कि भले ही आपने अपनी सारी शक्ति या सारा समय इस प्रत्यक्षज्ञान को प्राप्त करने के लिए न लगाया हो, फिर भी आपने अतीन्द्रियज्ञान की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के ग्रन्थ तथा लेख आज अत्यन्त लोकप्रिय हो रहे हैं । इसका कारण है आपकी सुगम और सरस भाषा तथा मधुर और सरल शैली। इसके साथ-साथ आपकी निरूपण की विशदता भी अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। इन सब विशेषताओं से भी अति महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि आपके साहित्य में प्रत्यक्ष अनुभव, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और स्वतंत्र चिन्तन की प्रकाश-रेखाएं पग-पग पर परिलक्षित होती हैं । ऐसे प्रकाशपुंज साधक के ज्ञान और क्रिया से संबंधित अथवा अन्यान्य विषय-संबंधी प्राचीन और दुर्गम शास्त्रीय तथ्य भी जिज्ञासु व्यक्ति ऐसी सहजता से समझ सकता है कि वह उन तथ्यों के रहस्यों को सहजरूप से आत्मसात् कर लेता है । जैन साहित्य की ऐसी उत्तम और आकर्षक पुस्तकों का सर्जन करना मुनि श्री की अनोखी विशेषता है। इससे जैन श्रमण संघ और जैन साहित्य का गौरव बढ़ा है, इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। मुनि नथमल जी ने दस वर्ष की छोटी अवस्था में दीक्षा ली और अभी आपकी अवस्था है ५८ वर्ष की । आपको दीक्षित हुए लगभग ४८ वर्ष हो चुके हैं। आपने अपना यह पूरा समय समर्पण भाव से गुरु की सेवा और आज्ञापालन करने में बिताया है और साथ-साथ ज्ञान-ध्यान पूर्वक संयम की आराधना भी करते रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी निष्पत्ति यह हुई कि आप अपने से भिन्न या विरोधी विचार रखने वाले व्यक्ति को शान्ति पूर्वक सुन सकते हैं, समझ सकते हैं और अपनी बात दूसरों को समझाने का धैर्य पूर्वक प्रयत्न करते हैं । इससे आपकी सत्यनिष्ठा और समता की साधना की कीर्तिगाथा बनी रह सकती है। पन्द्रह या कुछ अधिक वर्ष पूर्व एक जापानी विद्वान् भारत आए थे । वे आचार्य श्री तुलसी से मिले । जापान में बौद्ध धर्म का प्रभुत्व है और उसकी साधना में ध्यान का भी महत्त्व है। उसे 'जेन बुद्धिज्म' कहा जाता है। वे जापानी विद्वान् स्वयं बौद्ध धर्मावलम्बी थे। उन्होंने आचार्य श्री तुलसी से पूछा-ध्यान-साधना भारत की बपौती है, फिर भी आज भारत में उसकी उपेक्षा क्यों हो रही है ? आचार्य श्री ने कहा-आपकी बात सत्य है । किन्तु अब हम इस ओर विशेष ध्यान दे रहे हैं। उसके बाद ही तेरापंथ में ध्यान-साधना की दिशा में सजीव और निष्ठायुक्त प्रयत्न होने लगे। इन प्रयत्नों में युवाचार्य श्री का देय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इतना ही नहीं, स्वयं आपने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। ऐसे सत्य, समता और सहिष्णुता के समर्थ उपासक मुनिवर अपने कंधों पर आए हुए उत्तरदायित्व के नए भार का भलीभांति निर्वाह करते हुए अत्यधिक यशस्वी होंगे, इसमें शंका नहीं है। *साप्ताहिक 'जन' (गुजराती) से साभार खण्ड ४, अंक ७-८
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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