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जाए-ऐसी प्रेरणा भाग्य से ही प्राप्त होती है । मुनि श्री नथमलजी की अपनी एक विशेषता है । वे प्रत्येक विचार को अपने मौलिक और स्वतंत्र चिन्तन की कसौटी पर कसते हैं और नवनीत रूप उसके निष्कर्ष को स्वीकार करने के लिए तत्पर रहते हैं। उनमें यह गुणग्राहकवृत्ति और सत्य को सौम्य सुन्दर रूप में अभिव्यक्त करने की अद्भुत कला है। उनकी यह क्षमता सैकड़ों सहृदय गुणवान् व्यक्तियों द्वारा प्रशंसनीय है । मैं भी इसी से प्रेरित होकर कुछ लिखने के लिए तत्पर हुआ हूं और यह उचित भी है।
जिस व्यक्ति को सत्य और गुणों का शोधक अर्थात् अनेकान्तवाद का जीवन्त उपासक बनना हो उसको सबसे पहले अपनी ज्ञान-साधना की सीमा को विशाल ही नहीं करना होता है, किन्तु पूर्वाग्रहों तथा सभी प्रकार के अन्य बंधनों से सर्वथा मुक्त कर देना होता है । ऐसी ज्ञान-साधना के प्रकाश में जो ज्ञेय (जानने योग्य), जो हेय (त्यागने योग्य) और जो उपादेय (स्वीकार करने योग्य) होता है, उसको जीवन में उतारने के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि ऐसा होता है, तभी 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः'- इस सूत्र की जीवन में सार्थकता मानी जा सकती है। इसी विधि से मोक्ष प्राप्ति के साधन रूप समता की साधना हो सकती है।
____ मैंने तेरापंथ के युवाचार्य श्री नथमल जी द्वारा संपादित तथा स्वतंत्र रूप से लिखित छोटे-बड़े पचास से अधिक ग्रन्थों का सूक्ष्मदृष्टि से निरीक्षण किया है। कितना व्यापक और विशाल है आपका अध्ययन तथा कितना गहन और समभाव युक्त होता है आपका मननचिन्तन, यह ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात हुए बिगर नहीं रहता। युवाचार्य श्री अपनी आत्मसाधना तथा जीवन-शोधन के लिए कितने अप्रमत्त जागृत रहते हैं, यह तथ्य भी आपकी साहित्य-साधना तथा संयम-वैराग्य की साधना से ज्ञात हो जाता है। यह कहना चाहिए कि जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचार अर्थात् जैन दर्शन और जैन धर्म को अपने जीवन में समानरूप से प्रतिष्ठित कर आपने अपने श्रमण धर्म की साधना को चरितार्थ और उन्नत किया है।
सत्य की खोज और आत्म-खोज के लिए परोक्षज्ञान से आगे बढ़कर प्रत्यक्षज्ञान प्राप्त करने की आपकी अभिलाषा कितनी तीव्र है, इसका उल्लेख आपने 'महाप्रज्ञ' की उपाधि स्वीकारते समय अपने वक्तव्य में किया था। आपने अपने भाषण में कहा - मेरे मन का एक स्वप्न था, बहुत पुराना स्वप्न । मैंने आचार्यवर श्री तुलसी से बहुत पहले प्रार्थना की थीमैं अभी संघ की सेवा में संलग्न हूं। मैं जब ४५ वर्ष का हो जाऊं तब मुझे सभी प्रकार की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया जाए। मैं केवल प्रज्ञा की साधना करना चाहता हूं तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए समर्पित होना चाहता हूं। हम सब केवल परोक्षज्ञानी बने रहें और यही रटन लगाते रहें कि शास्त्रों में यह लिखा है, वह लिखा है, यह मैं नहीं चाहता । किन्तु आज ऐसा ही हो रहा है । हम प्रत्यक्ष ज्ञान की उपेक्षा कर रहे हैं। अब हम स्वयं जागृत हों और यह कहने की स्थिति उत्पन्न करें कि मैंने स्वयं इस तथ्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और मैं अपने अनुभव के आधार पर यह बात कह रहा हूं। केवल परोक्ष की दुहाई न दी जाए, केवल शास्त्र की रटन ही न होती रहे, हम स्वयं अनुभव करें और जिन-जिन साधकों ने अनुभव किया है, उनके साथ साक्षात् संपर्क करें।"
इस वक्तव्य में कहे अनुसार मुनि श्री संघ को संभालने के उत्तरदायित्व से तो मुक्त नहीं हो सके, किन्तु उनका कथन इस बात का साक्षी है कि वे कितने लम्बे समय से शास्त्र३६२
तुलसी प्रज्ञा