SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शोध लेख गृहस्थ-धर्म का अध्यात्मिक महत्त्व (उत्तराध्ययनसूत्र पर आधारित एक अध्ययन) प्रो० कैलाशचन्द जैन कुछ विचारक और दार्शनिक जैनधर्म एवं दर्शन को साधुओं-तपस्वियों का धर्म बताकर गृहस्थ जीवन को निरर्थक कह देते हैं। परन्तु जैन-दर्शन में गृहस्थ जीवन का महत्त्व किसी भी रूप में कम अभिव्यक्त नहीं हुआ है। जैन आगमों में निर्देशित गृहस्थ धर्म का पालनकर मानव मनुष्य-योनि में जन्म पाने के सभी दार्शनिक , आध्यात्मिक एवं लौकिक उद्देश्यों की पूर्ति कर सकता है । लगभग सभी हिन्दू दर्शनों में गृहस्थ धर्म के महत्त्व को आवश्यक स्वीकार करते हुए उसे मानवीय, नैतिक, सन्तोषी, गृहस्थ-जीवन यापन का मार्ग निर्देशित किया गया है । गृहस्थ-धर्म के महत्त्व को स्वीकार करने वाले धर्म-शास्त्र वेत्ताओं के विचारों को स्पष्ट करते हुए पी० वी० काणे लिखते हैं कि- "इस पक्ष वाले विवाह एवं सम्भोग को अपवित्र एवं तप के लिये बुरा नहीं मानते, प्रत्युत विवाह एवं सम्भोग को तप जीवन से उच्च मानते हैं । गृहस्थ-आश्रम वास्तव में जीवन यात्रा का मुख्य दूसरा व्यवस्थित पड़ाव है। ब्रह्मचर्य एवं शिक्षा की नींव पर रचित गृहस्थ आश्रम एक सुदृढ़ मानवीय जीवन की यथार्थता, कृतार्थता का प्रमुख पीठ है। शिक्षाविदुषी शकुन्तला तिवारी लिखती हैं—'भारतीय शास्त्रों में गृहस्थ आश्रम को अत्यन्त श्रेष्ठ तथा अन्य सभी आश्रमों का उपजीव्य माना गया है। दान, आतिथ्य, भिक्षा आदि के द्वारा वह तीनों आश्रमों का पोषण करता है । तीनों आश्रमों को धारण करने के कारण गृहस्थाश्रम ज्येष्ठ अथवा सबसे बड़ा है।" जैन आगमों में गृहस्थ को भिक्षु के समकक्ष ही रखते हुए कहा गया है कि जो उपशान्त होते हैं, वे संयम और तप का अभ्यास कर उन देव-आवासों में जाते हैं, भले ही फिर वे भिक्षु हों या गृहस्थ ।' गृहस्थ जीवन का परिपालन कर स्वर्ग पाने का निर्देश आपस्तम्ब धर्मसूत्र में देते हुए उपदेशित किया गया है कि-जो धर्म-निर्दिष्ट कर्मों का सम्पादन १. पी० वी० काणे, 'धर्मशास्त्र का इतिहास', प्रथम संस्करण लखनऊ, पृष्ठ २६७ । २. शकुन्तला तिवारी, "महाभारत में धर्म", प्रथम संस्करण १९७०, आगरा, पृष्ठ ३३६। ३. उत्तरज्झयणाणि (उत्तराध्ययन सूत्र) स०-मुनि नथमल, संस्करण १६६७, कलकत्ता, ५/२८। ४. आपस्तम्ब धर्मसूत्र–सम्पादक उमेश चन्द पाण्डेय, संस्करण १६६६ । चौखम्बा संस्कृत सीरीज वाराणसी, २/९/४/३-४-५ । ४५६ तुलसी-प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy