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मंडल पर आभा खिल उठी थी। प्रवचनों में सहस्रों की भीड़ होने लगी थी। उनके व्यक्तित्व का आकर्षण कई राजाओं और श्रेष्ठि-पुत्रों को खींच लाता था, उनकी यशोगाथा दूर-दूर तक फैल चुकी थी।
इस प्रसिद्धि से महाराज रूपीराय को कितनी प्रसन्नता हुई, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। वे समय-समय पर श्रमण अरुण के दर्शनार्थ आते थे । उनको श्रमण के सान्निध्य में एक अप्रकट आनन्द का अनुभव होता था । वे जानते थे कि इस जीवन में श्रमण त्याग के पथ पर अग्रसर हो रहे थे और उन्होंने भी आजीवन शीलव्रत का संकल्प लिया था, इसलिये कोई भी शारीरिक सम्बन्ध इस जीवन में संभव नहीं था। फिर भी उनका अनुराग अरुण के प्रति दिन-दिन बढ़ता जा रहा था, उसमें न्यूनता कभी नहीं आई।
श्रमण अपनी तपस्या के बल पर विश्वस्त थे कि रूपीराय का उनसे मिलना उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता। किन्तु उनके मन में भी कहीं गहराई में एक अतृप्त वासना दब कर रह गई थी, जो उन्हें बरबस महाराज रूपीराय की ओर देखने को विवश करती और वे अपने एकान्त चिन्तन के समय इसे अनुभव करते । महाराज ने कितना विश्वासपात्र समझ कर व अपना मित्र मानकर उसके समक्ष अपने जीवन का भेद खोला था, किन्तु वह उनकी कोई सहायता नहीं कर सका। चोरों की तरह चुपचाप भाग आया। यह विचार श्रमण को आंतरिक पीड़ा पहुंचाता था। नारी का समर्पण पुरुष अस्वीकार कर दे, यह कितना अपमानजनक होता है । श्रमण यह जानकर कि रूपीराय एक स्त्री है, उसे एकान्त में समय नहीं दे सकते थे, अतः उन्हें अपनी यह विवशता बहुत खलती थी, कचोटती थी। साधु जीवन के नियमों का पालन उसके लिये अनिवार्य था, इसलिए रूपीराय को अंतरंग भाव प्रकट करने का सुअवसर भी वे नहीं दे पाते थे, अच्छा होता, वे इस पथ पर बढ़ने से पूर्व एक बार महाराज रूपीराय से मिल लेते, तो मन का एक बोझ हल्का हो जाता।
श्रमण के मन में यह सतत भाव एक अशान्ति उत्पन्न कर देता और वे सोचते कि कर्मों का यही चक्कर कहीं उसकी साधना की निष्पत्ति में बाधक न बन जाय । वासना का श्रोत केवल रोक देने से सूखता नहीं । अंगारे पर राख डालने से वह बुझता नहीं, बल्कि अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होते ही प्रज्वलित हो जाता है। महाराज तो यह भेद प्रकट करते ही अश्वारूढ़ होकर प्रस्थान कर गये कि वे एक नारी हैं । शायद, इस रहस्योद्घाटन की प्रतिक्रिया को वे स्वयं उपस्थित रह कर सहन नहीं कर सकते थे, पर अरुण को भी प्रतिक्रिया प्रकट करने का अवसर नहीं मिला और इस प्रकार भावनाओं को उद्गार का अवसर न मिलने से एक नई समस्या खड़ी हो गई। ध्यान की मुद्रा में स्थित होकर बैठने पर उन्हें स्पष्ट बोध होता कि वे रूपीराय के आकर्षण से मुक्त नहीं हैं।
वे प्रभु से प्रार्थना करते कि उनकी तपस्या में यह बाधा मिट जाय, अन्यथा उनका कल्याण संभव नहीं । रूपीराय ने उनकी साधना में बाधक न बनने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का कठोर व्रत ग्रहण करके उन पर कितना बड़ा आभार डाल दिया था, जिसका धन्यवाद भी वे नहीं दे सकते थे । सत्ता, संपदा के फलस्वरूप सहज प्राप्य जीवन के मन आमोदप्रमोद को इस प्रकार त्यागना, कोई सहज कार्य नहीं था । अन्य किसी से प्रणय-बन्धन में बन्धने की अपेक्षा उन्होंने भीष्म प्रतिज्ञा कर ली। कितना निःस्वार्थ निश्छल उनका प्रेम था, जिसका प्रत्युत्तर देना उनके लिये संभव नहीं था।
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खंड ४, अंक ७-८
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