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"आपका कर्त्तव्य अभी राज्य शासन को सँभालना है। जब तक उसका किसी प्रकार उत्तराधिकारी आप न बना सकें, तब तक आपको अपनी भूमिका निभानी ही चाहिये ।'
"मैं फिर दर्शन करूँगा। आज्ञा दीजिये।"
महाश्रमण ने महाराज को विदा किया व अरुण को आदेश दिया कि वह महाराज को द्वार तक छोड़ आये।
"श्रमण प्रवर को सादर वंदना ।" महाराज ने संयत स्वर में कहा ।
"धर्म लाभ ! काल की गति को कोई न तो जानता है, न रोक सकता है। अनोखी बात लगती है। आपकी समस्या मुझे साधु बना गई । वैसे वह एक झटका था, प्रवृत्ति मेरी वैराग्य की ओर पहले से थी, ऐसा अब स्पष्ट प्रतीत होता है। फिर भी व्यवहारिक दृष्टि से आपको धन्यवाद देना मैं अनुचित नहीं समझता।" श्रमण अरुण ने कहा।।
"धन्यवाद देकर मुक्त हो जाना चाहते हो। क्या यह आवश्यक नहीं कि पूर्व जन्म के मित्र का भी कल्याण करो । साधु तो निःस्वार्थभाव से सेवा करते हैं । जन-कल्याण ही उनका जीवन का लक्ष्य होता है ।" महाराज ने उत्तर में कहा ।
"आत्म-कल्याण के पश्चात्" अरुण ने महाराज को बीच में ही रोक दिया । "बिना ज्ञान को प्राप्त किये दूसरों को ज्ञान के मार्ग-दर्शन का कोई अधिकार नहीं होता। जब तक कोई स्वयं लक्ष्य की प्राप्ति न कर ले, तब तक उसे किसी को राह दिखाने का अधिकार नहीं होता । मैंने अभी प्रथम चरण उठाया है, गंतव्य स्थान दूर है।"
“मैं गुरुदेव व आपके दर्शन यथाशीघ्र करता रहूंगा" महाराज बिदा हुये । अरुण एक टक दृष्टि से उसे आँखों से ओझल होने तक देखता रहा।
"अरुण ! समय बीत रहा है, समय-मात्र प्रमाद मत करो" अरुण ने घूम कर देखा कि महाश्रमण पीछे खड़े थे , अरुण ने पांव छू कर वंदना की। "मनुष्य अपनी गति रोककर स्थिर हो सकता है, किन्तु समय गतिमान् रहता है।"
"पूर्व जन्म के संस्कारों से इस आयु में इस मार्ग पर आ गये हो । इस जन्म की उपलब्धि ही आगे बढ़ायेगी। इसलिये ध्यान रहे कि प्रगति में गतिरोध उत्पन्न नहीं हो जाय । मुझे विश्वास है, तुम्हारा उत्थान होगा, पर देखना यह है कि कितना । मुझे यह भी विश्वास है कि तुम मेरा पद ग्रहण कर सकोगे । इसलिये दृढ़ संकल्प से साधनारत हो जाओ।"
सूचना मिलते ही अरुण के सभी परिजन महाश्रमण की सेवा में उपस्थित हो गये । अरुण उस स्थान पर पहुंच चुका था, जहां से लौटने का प्रश्न नहीं था। विधि का विधान मान कर सबने अरुण को श्रमण वेश में स्वीकार किया।
महाश्रमण मणिभद्र का देहावसान हो चुका था। वे अपना उत्तराधिकारी श्रमण अरुण को मनोनीत कर गये थे । श्रमण अरुण ने भी उस पद के उपयुक्त साधना करके अपना स्थान बना लिया था। तपस्या के कई नवीन कीर्तिमान् उन्होंने स्थापित किये थे। कई दिनों के उपवास, घंटों ध्यान व अपूर्व स्वाध्याय से उसका शरीर कृश हो चला था, पर उनके मुख
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तुलसी प्रज्ञा