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________________ प्रवचन प्रारंभ हुआ, प्रार्थना के साथ । "जीवन द्वंद्वात्मक है । सुख-दुख, शीत-उष्ण, ऊँच-नीच, मैत्री-वैर, मोह-वैराग्य, रागद्वेष, इन्हीं द्वंद्वों में संसार की समस्त रचना है। मनुष्य सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना है । मनुष्य अपनी साधना व तप से भगवान् बन सकता है । कहने में जितना सहज यह तथ्य है, कार्य रूप में परिवर्तन करने में उतना ही कठिन । बहुत संकीर्ण व दीर्घ मार्ग है । जन्मजन्मान्तर इसमें लग सकते हैं, किन्तु एक साधारण सत्य यह भी है कि जो प्रथम चरण नहीं उठाता, वह कहीं नहीं पहुंच पाता, वह स्थिर होकर रह जाता है । गतिहीन बनकर कोई लक्ष्य तक नहीं पहुंचा । इसलिये कितना ही नगण्य होते हुए भी प्रथम चरण बहुत महत्त्व रखता है, इसलिये दृढ़ संकल्प होकर पूरी शक्ति के साथ प्रथम चरण उठालें तो लक्ष्य एक चरण समीप आ जायेगा। लक्ष्य प्राप्ति का कार्य प्रारम्भ हो जायेगा । परिणाम कहीं दूर नहीं-कर्म का फल कहीं भविष्य में नहीं, कर्म के साथ ही उपलब्ध है।" महाश्रमण ने महाराज की ओर देख कर कहा- "प्रश्न यह है कि यह प्रथम चरण कौनसा है व किस ओर उठाना है । द्वंद्वात्मकता से बाहर होना ही वह चरण है। रागद्वेष से ऊपर उठना ही वह चरण है। इसलिए भगवत्सत्ता की साधना वीतरागता का मार्ग ही है। केवल द्वेष से मुक्ति नहीं, अपितु राग से भी मुक्ति आवश्यक है। दोनों ही समान रूप से बन्धन हैं । इसलिये दोनों से विमुक्त होना है।" व्याख्यान चल रहा था। उधर अरुण और रूपीराय अपने विचारों में खो रहे थे। वे महाश्रमण के भाषण को अपने जीवन पर घटित करके देख रहे थे कि उनमें क्या कमी थी, उनका प्रथम चरण उठा या नहीं । . व्याख्यान समाप्त हुआ । महाश्रमण ने महाराज को विशेष रूप से एकान्त में समय दिया। अरुण द्वारा, वे सारी स्थिति से अवगत हो चुके थे। महाराज के साथ उन्हें हार्दिक सहानुभूति हो गई थी। "महाराज ! अरुण के जीवन में एक अभिन्न मोड़ आया। इसका श्रेय आपको है। मैं इसे पूर्वजन्म का महान् साधक मानता हूँ, अन्यथा इस उम्र में सांसारिक सुख व वैभव से मुंह मोड़ना सहज बात नहीं है।" "मैं श्रेष्ठिपुत्र को साधु वेष में देख कर विस्मित ही नहीं, स्तम्भित हूँ । साथ ही उसका इस प्रकार त्याग करना एक अद्भुत व अप्रत्याक्षित घटना है । मैं उसके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हूं, मैं उसका जीवन आदर्श एवं अनुकरणीय मानता हूं और महाश्रमण के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण करता हूं।" महाश्रमण ने इस महान् त्याग की बहुत प्रशंसा की एवं अपनी साक्षी से उन्हें संकल्प करवा दिया। "पूर्व जन्म के संस्कारों ने अरुण को एक साथ इतनी शक्ति दे दी कि उसने एकदम सांसारिक बन्धन त्याग दिये, पर इतना बल मुझमें नहीं है। मेरा उत्तरदायित्व सारे राज्य के प्रति है, इसलिये मैं इतनी शीघ्र परिवर्तन नहीं ला सकता।' खंड ४, अंक ७-८ ४५३
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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