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नटकन्या और श्रेष्ठिपुत्र
--- सोहनराज कोठारी अभी तक आपने पढ़ा :
नगर श्रेष्ठि कुबेरपाल के जमाता अरुण का रूप-लावण्य देख कर महाराज रूपीराय मन्त्र मुग्ध हो गए । उन्होंने एकान्त में अरुण को अपने जीवन का भेद बताया, जिसे सुनकर अरुण चकित हो गया। अगले दिन दोनों चुपचाप भ्रमण को निकल पड़े । राज्य की सीमा आते ही अरुण ने राजसी वैभव से विदाई ली और ध्यान-मग्न होकर बैठ गया । आँख खोलने पर उसे एक तेजस्वी सन्त दिखे, जिन्होंने उसे जीवन का शाश्वत सत्य बताया। अब आगे पढिए।
(गताङ्क से आगे) महाराज रूपीराय ने श्रेष्ठिपुत्र के पुनरागमन की सूचना देने के लिए भृत्यों को नियुक्त कर दिया था। समय बीतता गया, दिन चढ़ता गया, किन्तु निराशाजन्य सूचना ही उन्हें प्राप्त होती रही। उधर श्रेष्ठि के घर में सन्नाटा छाया हुआ था। राजमहल में भी इसकी सूचना भेजी गई । महाराज ने अश्वारोहियों को खोजने के लिए भेजा। संध्या समय वे अरुण का घोड़ा लेकर आगये, पर उससे तो चिन्ता का कोई पार ही न रहा । क्या वह कोई हिंसक पशु का शिकार हो गया ? या उसने कहीं आत्म-हत्या कर ली ? किसी को पता नहीं लग सका कि कौनसी ऐसी घटना हुई कि अरुण इस प्रकार से अंतर्धान हो गया। श्रेष्ठिपुन करुण के लोप होने से उसके परिजनों को जो शोक हुआ, वह तो स्वाभाविक था, किन्तु जो संताप महाराज को हुआ, उसे कोई नहीं जान सका । वे अपने को इस दुर्घटना के लिये उत्तरदायी मानते थे।
खोज क्रम चलता रहा, किन्तु अरुण भी कम सावधान नहीं था । वह जहाँ तक बन पड़ता, बहुत कम बाहर जाता, दृष्टि बचाकर चलता, किन्तु एक दिन महाराज के एक दूत ने उसे देख ही लिया। फिर क्या था, महाराज को विद्युत् वेग से सूचना हो गई और वे अपने विश्वस्त दल सहित वहां पहुंच गये ।
व्याख्यान का आयोजन हो रहा था। जन-समूह की भीड़ थी। महाराज रूपीराय को प्रमुख पंक्ति में स्थान दिया गया था। महाश्रमण ने पदार्पण किया। उनके पीछे संतों की टोली थी, जिसमें श्रमण अरुण को महाराज ने पहचान लिया, दोनों की आँखें एक क्षण को मिल गई। अरुण एक बार तो मानो आकाश से गिरा । उसे कितनी आशा से महाराज ने सम्मान दिया था, मित्रता स्थापित की और एक मित्र के नाते जीवन का महान् गोपनीय रहस्य प्रकट किया व उसकी सहायता चाही। किन्तु वह विश्वासघात करके धोखा देकर, कायर की भाँति भाग खड़ा हुआ । एक चोट उसके तन-मन को झकझोर गई।
महाश्रमण एक काष्ठ-पट्ट पर विराजमान हो गये । उनके दाहिनी ओर अन्य साधुओं के साथ श्रमण अरुण भी आसीन हो गया।
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तुलसी-प्रज्ञा