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करते हुए, जीवन व्यतीत करते हैं, वे अपने दिवंगत पूर्वजों के यश तथा स्वर्गिक सुखों की अभिवृद्धि करते हैं । अगली पीढ़ी अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के पुरुषों के सुख और यश को बढ़ाती है । पुत्र वाले दिवंगत पुरुष महाप्रलय तक स्वर्ग में निवास करते हैं और स्वर्ग के जेता होते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में भी उल्लेख है कि शिक्षा से समापन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर देवलोक में जाता है । पुनः सुव्रती धर्मपालक गृहस्थ को भिक्षु के समान स्वीकार करते हुए उपदेशित किया गया है कि भिक्षु हो या गृहस्थ, यदि वह सुव्रती है तो स्वर्ग में जाता है।
___गृहस्थ को मानव-धर्म का पालन करना चाहिए । मानवधर्म से स्वजीवन में ही नहीं, अपितु सर्वत्र शान्ति और सन्तोष की धारा बहती है तथा परिवार एवं राष्ट्र की समृद्धि भी होती जाती है । आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी मानव कर्मों का क्षय करके मुक्ति मार्ग की
ओर प्रवृत्त होता है । मनुष्यत्व को प्राप्त कर, जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है, वही तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर, संवृत हो, कर्मरजों को धुन डालता है। अमानीय प्रवृत्तियों का अन्त सदैव दुखदायी ही होता है। जो मनुष्य कुमति को स्वीकारं कर पापकारी प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, उन्हें देखें, वे धन को छोड़कर मौत के मुह में जाने को तैयार हैं। वे वैर (कर्म) से बंधे हए नरक में जाते हैं।
गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए मनुष्य को परम सिद्धि प्राप्ति का निर्देश भारत के दार्शनिक साहित्य में किया गया है। महाभारत में गृहस्थ आश्रमों को सब धर्मों का मूल बताते हुए, भीष्म जी ने युधिष्ठर से कहा -'गृहस्थाश्रम सभी धर्मों का मूल कहा गया है, इसमें रह कर अन्तःकरण के रागादि दोष पक जाने पर जितेन्द्रिय पुरुष को सर्वत्र सिद्धि प्राप्त होती है । बौद्ध-दर्शन में तो यह भी स्वीकार किया गया है कि-गृहस्थ व्यक्ति निर्वाण की प्राप्ति कर मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि "एक ही नहीं पाँच सौ से अधिक ही मेरे गृहस्थ उस लोक से न लौटकर आने वाले हैं।" इस तरह बौद्ध-दर्शन में गृहस्थ अवस्था में मोक्ष प्राप्ति को स्वीकार किया गया है । परन्तु मिलिन्द प्रश्न" ग्रंथ में स्पष्ट किया गया है कि गृहस्थ रहना अर्हत् के अनुकूल नहीं
५. एवं सिक्खा-समावन्ने गिह-वासे वि सुव्वए।
मुच्चई छवि-पव्वाओ, गच्छे जक्ख-सलोगयं ।
उत्तरज्झयणाणि, ५/२४ । ६. भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुव्वए कम्मई दिवं ।
वही ५/२२ । ७. वही-३/११ । ८. वही-४/२ । ६. गृहस्थस्त्वेष धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते,
यत्र पक्व कषायो हि दान्तः सर्वत्र सिद्धयति ।
महाभारत, शान्तिपर्व-२३४/६ । १०. मज्झिमनिकाय (हिन्दी अनुवाद-महापंडित राहुल सांकृत्यायन), महावच्छगोत
सुत्त, २/३/३ पृ० २८८ । .. ११. मिलिन्द प्रश्न-४/७/६३ पृ० ३२५ ।
खंड ४, अंक ७-७
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