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हैं । अर्ह होते ही या तो प्रव्रजित हो जाता है, या महा परिनिर्वाण को प्राप्त करता है । गृहस्थ आश्रम का महत्त्व किसी भी दर्शन में किसी भी रूप में कम नहीं है । गृहस्थों को मुनियों-साधुओं के समकक्ष रखकर भारतीय दर्शन में गृहस्थ धर्म के आध्यात्मिक महत्त्व को स्वीकार किया गया है । परन्तु एक गृहस्थ तभी एक अच्छा जीवन गुजार सकता है, जब वह धर्म - निर्दिष्ट जीवन का पालन करे । वैसे यह व्यवहार में भी सत्य है । भौतिक वस्तुओं का संग्रह, कामभोगों की आकांक्षाएँ और पापमयी प्रवृत्तियाँ मानव-जीवन में अशान्ति उत्पन्न कर उसके जीवन को कष्टों से भर देती हैं । निरर्थक कामभोगों के परित्याग का निर्देश उत्तराध्ययन सूत्र में बार-बार किया गया है। कामभोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं, कामभोग की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं ।" जैसे कोई मनुष्य काकिणी ( प्राचीन मुद्रा का सबसे छोटा सिक्का) के लिए हजार कार्षापण गंवा देता है, जैसे कोई राजा अपथ्य आम को खाकर राज्य से हाथ धो बैठता है, वैसे ही जो व्यक्ति मानवीय भोगों में आसक्त होता है, वह दैवी भोगों को हार जाता है ।13 व्यवहार रूप से भी देखने में आया है कि मानव भौतिक वस्तुओं की कामनायें करते हुए, काम भोगों में आसक्ति रखते हुए, निरर्थक राग-द्वेष से ग्रसित होकर दीवानों की भाँति पापमयी क्रियाओं में लगे रहते हैं । अपने कर्तव्यों से विमुख होकर भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं ।
भौतिकता मनुष्य को कभी शान्ति न देकर, नारकी की भूख-प्यास बढ़ाने की भाँति सदैव ही भटकाने वाले मार्ग में प्रवृत्त करती जाती है । कामभोगों से मूच्छित होकर मूढ लोग यह नहीं समझ पाते कि यह समूचा संसार राग-द्वेष की अग्नि से जल रहा है ।" कितनी भी धन सम्पत्ति प्राप्त हो जाये, मानव शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता है । जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया कि यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाये अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाये तो भी यह तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा । १५ इस तरह काम-भोगों, वासनाओं से मुक्त होकर नैतिक आदर्शों से युक्त जीवन ही सफल जीवन है । वासनाओं से शून्य व्यक्ति मुक्ति मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है ।"
मानव को राग-द्वेष का परित्याग कर सभी में समान भाव से प्रवृत्त होकर उत्तम गुणों को धारण करना चाहिए । राग-द्वेष मनुष्य को निरर्थक हानि पहुंचाते हैं । राग-द्वेष से मनुष्य चिंता में घुलता हुआ व्यर्थ ही अपने शरीर और स्वास्थ्य का विनाश करता है । पाप कर्मों का बन्ध करता है । राग और द्वेष—ये दो पाप कर्मों के प्रवर्तक हैं ।" राग और द्वेष
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१२. उत्तरज्झयणाणि --- ६ / ५३ ।
१३. वही - ७ /११ ।
१४. वही --- १४/४३ ।
१५. वही - १४ / ३६ ।
१६. सग्गं सुगतिनो यन्ति परिनिब्बन्ति अनासवा ।
धम्मपद, सम्पादक सत्यप्रकाश शर्मा, संस्करण १६७२ मेरठ, ६ / १२६ पृ० ५६ । १७. रागद्दोसे य दो पावे पावकम्मपवत्तणे ।
उत्त रज्झयणाणि - ३१ / ३ ।
तुलसी - प्रज्ञा