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________________ कर्म के बीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है।" जहाँ राग-द्वेष से कर्मों का बन्ध होता है, वहाँ व्यवहार में यह भी स्पष्ट है कि राग-द्वेष से मनुष्य व्यर्थ ही चिन्तित रहता है । मानव को पापमयी प्रवृत्तियों का परित्याग कर अपने जीवन को नैतिक पुष्पों की सुगन्धि से आच्छादित कर आध्यात्मिकता की विमल गंगा के समान पवित्र बनाना चाहिए, जहाँ पाँच महाव्रतों के सुमन खिल सकें। प्राकृतिक मानसिक बुराइयाँ क्रोध, मान, माया, लोभ, व्याभिचार मानव के लिए बहुत घातक हैं । जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि जिस मानव में क्रोध है, मान है, हिंसा है झूठ है, चोरी है और परिग्रह है, वह जाति-विहीन, विद्या-विहीन और धर्म-विहीन है। इन विभिन्न पापों के दुष्परिणामों को भी स्पष्ट किया गया है । असत्यवादी के लिए कहा गया है कि असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय होता है । इस प्रकार वह रस में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। क्रोध के दुष्परिणाम को स्पष्ट करते हुए कहा है कि---जो क्रोध को सतत बढ़ावा देता रहता है और निमित्त कहता है, वह अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण आसुरी भावना का आचरण करता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है, मान से अधम गति होती है, माया से सुगति का विनाश होता है, लोभ से इस लोक और परलोक दोनों का ही विनाश होता है ।२२ परिग्रही पुरुष के लोभ-लालच को स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि कदाचित् सोने और चाँदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जाएँ तो भी लोभी पुरुष को उनसे सन्तोष नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। 3 इस तरह ये पापमयी प्रवृत्तियाँ मनुष्य के जीवन में अशान्ति उत्पन्न कर उसे मृगमरीचिका के समान संसार के भौतिक साधनों की प्राप्ति के लिए भटकाती हैं। मानव स्वार्थ में लीन होकर दूसरों का अहित करते हुए सदैव निरर्थक और पापमयी क्रियाओं में लगा रहता है । फलस्वरूप नरक में जाकर अपार कष्ट भोगता है । तात्पर्य यह है कि क्रोध, मान, माया, हिंसा, लोभ, अनैतिकता और परिग्रह आदि प्रत्येक अवस्था में कष्टकारी हैं । अतः इनका परित्याग करके ही मनुष्य परम आनन्द की प्राप्ति गृहस्थ आश्रम में कर सकता है। ___मानव को दुःख-सुख में समान रहने का विवेचन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि-~-मानव को ममत्वरहित, अहंकार रहित, निर्लेप, गौरव को त्यागने वाला, त्रस १८. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति । _वही-३२/७। १६. वही–१२/१४ । २०. वही-३२/७० । २१. वही--३६/२६६ । २२. वही-६/५४ । २३. वही-९/४८ । खंड ४, अंक ७-८ ४५६
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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