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और स्थावर सभी जीवों में समभाव रखने वाला होना चाहिए ।" लाभ, अलाभ, सुख दुःख, जीवन-मरण, निन्दा - प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहने वाला होना चाहिए ।" गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त निदान और बन्धन से रहित होना चाहिए।
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इस तरह गृहस्थ व्यक्ति को सुख-दुःख में समभाव रखते हुए आशावान् होकर निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हुए जीवन यापन करना चाहिए। वही सुख का देने वाला है । आशावान् होकर मन में दृढ़ता लाकर, पराक्रमी गुणों को धारण कर पुरुषार्थी होना चाहिए, यही सफलता के दायक हैं । 'चुलकलग जातक" की गाथा में मनुष्य को सफलता प्राप्त करने के लिए उपदेशित किया गया है - "संयम, समाधि, मन की एकाग्रता, अव्यग्रता, समय पर निष्कर्मण, दृढ़ वीर्य तथा पुरुष पराक्रम गुणों का होना आवश्यक है । इस तरह गृहस्थ संयम, शान्ति के जीवन को धारण कर बुराइयों का परित्याग कर परमानन्द की निःसन्देह प्राप्ति कर सकता है । सुख-दुःख में समभाव रखते हुए मुस्कराते रहना चाहिए, जैसे कृष्ण नाग शैया पर लेटे हुए भी खुश रहने के भाव को द्योतित करते हैं ।
गृहस्थ आश्रम इस प्रकार हर दृष्टिकोण से अपना आध्यात्मिक महत्त्व रखता है । गृहस्थ आश्रम में मनुष्य शान्ति पूर्वक जीवन-यापन कर परिवार, समाज, राष्ट्र, सभी के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर सकता है ।
२४. उत्त रज्झयणाणि १६ / ८६ | २५. वही १६ / ६० । २६. वही १६ / ६१ ।
२७. जातक - सम्पादक वी० फासबल, संस्करण १६६० लन्दन, गा० ४, पृ० ७ ।
[ पृष्ठ ४५५ का शेषांश ]
महाराज के दर्शनार्थ आये कभी-कभी अधिक समय व्यतीत होने पर श्रमण को उनकी कमी खटकने लगती, सर्वत्र सूना सा लगता, जीवन निरर्थक लगता । अब महाश्रमण तो रहे नहीं कि वे उनके चरणों में शीश रखकर अपनी राह का पता पूछते । अब तो उनको ही अपना मार्ग निर्देशक बनना था और इसके लिये वे अपने को अयोग्य पा रहे थे ।
समय अपनी निर्बाध गति से आगे बढ़ता गया । श्रमण की ख्याति बढ़ती गई व साथ ही आयु भी । शरीर यौवन से प्रौढ़ व प्रौढ़ से वृद्धावस्था की क्षीणता की ओर चलने लगा और एक दिन यात्रा का अन्त आ गया- - एक नई यात्रा का प्रारंभ, अपनी गोद में छुपाये ।
(क्रमश:)
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तुलसी- प्रज्ञा