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चाय-युग -डा० जेठमल भंसाली
जैन-दर्शन का मौलिक सिद्धान्त है-स्याद्वाद अर्थात् किसी भी विषय के दो अन्तों (Extremes) के बीच का मध्यम मार्ग । आधुनिक युग का सर्व प्रिय पेय चाय-पान को भी हमें इसी दृष्टि में देखना चाहिए। सर्वथा उपयोगी और सर्वथा निरुपयोगी तो संसार की कोई भी वस्तु होती नहीं ।
आज के सभ्य युग में चाय पीना अधिकांश मानवों के जीवन की एक साधारण सी आदत बन गई है । क्या गृहस्थ, क्या संन्यासी, सभी चाय पीना एक निर्दोष पेय मानते हैं । एक बार चाय की आदत बन जाने पर यह चिर-संगिनी बन जाती है। सभ्य सुशिक्षित समाज के समारोह का रस-आनन्द या अपने घर पधारे मेहमानों का स्वागत सत्कार चाय-पान के अभाव में सूना-सा लगता है। जहां भी हम जरूरी कार्य-वश मिलने-जुलने जाते हैं, वहां गरमा-गरम चाय तो बिना मांगे मिल जाती है, पर पानी तो मांग कर ही पीना पड़ता है। कवि "काका हाथरसी" ने ठीक ही कहा है
प्लेट फार्म पर यात्री पानी को चिल्लाय ।
पानी वाला है नहीं-चाय पिओ जी चाय ।। वास्तव में आज का युग चाय युग है । शहरों में तो हर गली, हर सड़क पर आर्डर देते ही गरमा-गरम चाय का प्याला आपकी सेवा में तैयार । आज' के युवक को तो सुबहसुबह बिछौने पर ही गरम चाय मिलनी जरूरी है-Bed Tea, इसे पिये बिना तो वह बिछौने से उठ ही नहीं पाता।
सुबह चाय, दोपहर में चाय, सन्ध्या-समय चाय और शायद रात में सोते समय भी चाय-यह तो आज साधारण सा कार्यक्रम बन गया है । फिर जरूरी कार्यवश दिन में कहीं भी मिलने जायें, तो चाय की मनुहार तैयार। चाय पीना इन्कार करें, तो हम ग्रामीण, असभ्य, अशिक्षित समझे जायें।
गृहस्थों की देखा-देखी साधु समाज में भी चाय का प्रचलन बढ़ा है। कई साधुसाध्वियों को तो चाय पीने की आदत भी बन गई है। सुना है, आचार्य श्री तुलसी ने चायपान की आदत को रोकने हेतु साधु-समाज पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाये हैं । पर आज तो
खंड ४, अंक ७-८
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