SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करते आ रहे थे। और सर्वप्रिय भाईजी महाराज के दिवंगत होने के पश्चात् मुनि श्री नथमल जी अधिकतर गुरुकुल में ही रहने के कारण उनकी पूर्ति बहुतांश में करते रहे हैं। मुनि श्री नथमल जी परमाराध्य आचार्य देव के भाष्यकार होने के साथ-साथ उनके एक Friend, Philosopher and Guide (मित्र, परामर्शक एवं दार्शनिक) के रूप में प्रस्तुत रहे हैं। गुरुदेव ने "प्राप्ते तु षोडसे वर्षे पुत्र मित्रवदाचरेत्" के सनातन नीति वाक्य के अनुसार शिष्य-स्थानीय पुत्र को मित्रवत् सदा ही अपने हृदय में स्थान दिया, जो कि पितृतुल्य गुरु के अनुरूप ही था। किन्तु हमने मुनि श्री को सदैव ही गुरुदेव को श्रद्धास्पद पितृरूप में देखते हेए पाया। उन्होंने गुरुदेव को कभी भी मित्ररूप में नहीं समझा। उनके समक्ष वे सदा ही मोले बालक की तरह रहे । यह उनकी गुरुदेव के प्रति परम श्रद्धा एवं समर्पण भावना का द्योतक है। अद्वत, त, एकादश (अनन्त) इस अवसर पर गुरुदेव ने मुनि श्री नथमल जी का नाम भी सदा के लिए बदल कर "महाप्रज" कर दिया और इस प्रकार गुण और गुणी में अभेद की स्थापना कर दी। यह भी एक असामान्य घटना है। .. जब भी अवसर आया मुनि श्री यह भावना व्यक्त करते रहे हैं कि गुरुदेव में और उनमें कोई भेद नहीं है। वे दोनों अद्वैत हैं—दोनों मिलकर एक इकाई हैं । उनका कहना अनेकान्त की दृष्टि से हम सही मान सकते हैं। १४१ एक ही होता है, किन्तु बीच-बीच में जी चाहता है कि हम इन दोनों विराट पुरुषों को क्यों न १+१=२ के रूप में देखें। क्या ये एक दूसरे के पूरक रहकर शासन और समाज की गौरव-वृद्धि में द्विगुणित काम करते नहीं आए हैं ? और अब तो यह जी चाहता है कि गणित के इन गुणा व योग के चिह्नों (X तथा +) को उपाधियों को मिटाकर हम इन महान् आत्माओं को एक और एक ग्यारह के रूप में अर्थात् अनन्त ही के रूप में क्यों न देखें। हमारी भावना है कि ये दोनों महान् पौरुष एवं व्यक्तित्व के धारक "एक" या "दो" न रह कर ग्यारह गुणी ही नहीं अनन्त गुणी सेवा समाज और शासन को युग-युग तक देते रहें। वह अनमोल पारस : आचार्य श्री श्रीमज्जयाचार्य जी ने अपनी एक गीतिका में भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति इन शब्दों में की है कि-'पारस, तू प्रभु सांचो पारस, आप समों कर देव हो" । हम सभी यह सुनते आये हैं कि “पारस" लोहे को सोना बनाता है। पारस को किसी ने प्रत्यक्ष देखा है, ज्ञात नहीं; और, उसमें लोहे को सोना बनाने की शक्ति कहाँ तक सही है, यह भी हम निश्चयतः नहीं बता सकते । किन्तु हम यह जानते हैं कि हमारे आचार्यों में ऐसी अद्भुत शक्ति रही है। उन्होंने अनेक लौह-खण्डों को सोना बनाया है और विशिष्ट गुण-सम्पन्न लौह-खण्ड को महान् कृपावश अपने ही तरह का पारस बना दिया। इसी श्रृंखला में हम पा रहे हैं अपने युगप्रधान महान् आचार्य प्रवर को । हम आभारी हैं उनके इन लोकोत्तर कृतियों के कारण । ऐसे कलाकार हैं हमारे श्रद्धेय आचार्य श्री, उन्होंने अपनी घोषणा से न केवल चतुर्विध संघ को आश्वस्त किया है, किन्तु हर्षित भी किया है समग्र आस्थाशील मानव समाज को और गुरुदेव स्वयं भी उऋण होकर अवश्य ही अपने को बहुत हल्का महसूस कर रहे हैं । उनकी खण्ड ४, अंक ७-८ .३५७
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy