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________________ यह महान् लाघवता चिरस्थायी हो । यह हमारी हार्दिक कामना है । साहित्य का अजल एवं अटूट स्रोत युवाचार्य महाप्रज्ञ जी की लगभग १०० कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं । और अनक अप्रकाशित कृतियाँ भी है। इनका विद्वत्समाज में पूरा मूल्यांकन हुआ है। मैंने उनकी सब पुस्तकें तो नहीं, बहुत थोड़ी ही पुस्तकें पढ़ी हैं । किन्तु मैं यह कह सकता हूं कि जिस पुस्तक के जिस भाग को भी मैंने पढ़ा, उसी से मैं प्रभावित हुआ। उनकी सम्बोषि, महापोर को साषमा का रहस्य, श्रमन महावीर, सत्य की खोज अनेकान्त के आलोक में, जनवर्शन के मौलिक तत्व, विजय यात्रा, तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो, चेतना का उध्वारोहण, जन योग, भिक्ष विचार दर्शन आदि पुस्तकें तो अतीव प्रेरणादायक हैं। हमने कई पुस्तकों का तो कई बार परायण भी किया है। इनका पठन मानसिक पुष्टिकर आहार का काम करता है। आज आवश्यक है कि उनकी पुस्तकों का सस्ता संस्करण प्रकाशित हो ताकि साधारण मध्यमवर्ग के व्यक्ति भी सहज ही उनसे लाभान्वित हो सकें । आगम ग्रंथों का सम्पादन कार्य तो उनके विशाल अध्यवसाय व अगाध ज्ञान का परिचायक है। मोक्ष-मार्ग के मुख्य साधन 'ध्यान' की लुप्तप्रायः जाह्नवी-धारा को उन्होंने जिस अध्ययन एवं अध्यवसाय के आधार पर भागीरथ की भाँति उद्धार किया है, उसके लिएमानव समाज उनका सदा ऋणी रहेगा । जैन साधना व ध्यान-पद्धति को शताब्दियों के बाद उजागर करना आपका अतीव महत्त्वपूर्ण अनुदान है। व्यवहार नय : निश्चय नय युवाचार्य महाराज बहुधा यह भावना व्यक्त करते रहते हैं कि हमारा "व्यवहार पक्ष" अधिक व्यापक बनता जा रहा है क्योंकि यह पक्ष आकर्षक है। वास्तव में ही आज निश्चय नय(अध्यात्म) का पलड़ा ऊपर उठा लगता है । हम आशा करते हैं कि आचार्य देव के आशीर्वाद से युवाचार्य महोदय का ऐसा उपक्रम रहेगा कि अचिर भविष्य में अध्यात्म का पलड़ा जो कि निश्चयनय पर आधारित है, बहुशाखी, बहुफलवान् वृक्ष की तरह नीचे झुकता दिखाई देगा। ___इस अवसर पर हम यह भी बताना चाहेंगे कि युवाचार्य श्री जी महाराज के अतीत में कई प्रसंगों पर सुष्ठु मतान्तर रहा है, किन्तु उनके हमारे प्रति स्नेह में कभी किसी प्रसंग पर कमी नहीं रही है, यह उनके वात्सल्य एवं उदार मानस का परिचायक है । वास्तव में स्वस्थ मतभेदों का होना विचारशीलता एवं जीवन्तता का परिचायक है । मैन विश्व भारती के आशाकेन्द्र हम, विश्व की इन दोनों महान् विभूतियों से "देहि देहि" की रटन लगाकर कोई और अन्य मांग नहीं करना चाहते हैं। शिक्षा, शोध, साधना, सेवा, संस्कृति की जीवन्त प्रतीक जैन विश्व भारती के एक सेवक के रूप में हम आपके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि व समर्पण-भावना व्यक्त करते हुए आपके प्रति यह कामना करते हैं कि आप पूर्ण स्वस्थ एवं दीर्घायु हों और आपका सात्त्विक मार्ग-दर्शन सदैव हमें मिलता रहे तथा जैन समाज की यह संस्था अपने महान् उद्देश्यों की सम्पूर्ति में निरतन्तर जागरूक एवं अप्रमत्त रहे । ३५८ तुलसी प्रशा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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