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युवाचार्य की नियुक्ति : आचार्य श्री का महान् दायित्व
जबरमल भंगरी
पंच परमेष्ठी में आचार्य का पद मध्य में है । पंच परमेष्ठी के अंतिम दो पदों में से आचार्य निर्वाचित होते हैं। आचार्य स्वयं तो संयम पालते ही हैं, साथ-साथ अन्यों को संयम पालने में सहायक बनते हैं। जैन शासन के आचार्य शृंगार होते हैं और चतुर्विध संघ की सारणा-वारणा करते हैं । जैनों में जैन श्वेताम्बर तेरापंथी एक बहुत बड़ा संघ है । इस संघ के सभी आचार्य उत्तरोत्तर प्रभावशाली हुए हैं। इस संघ के वर्तमान आचार्य श्री तुलसी गणी हैं। उन पर चतुर्विध संघ की विशेष जिम्मेवारी है। साधु-साध्वी समुदाय बहुत बड़ा है, फिर भी सब संघ के सदस्यों को परोटने की महान् दक्षता आचार्य श्री में है । युग बराबर पलटता जा रहा है। पलटते युग में जो युग की मांग के अनुसार अपने को नहीं पलटता वह पिछड़ जाता है।
आचार्य श्री तुलसी ने युग की परिवर्तन-शीलता को भली प्रकार समझा है और भविष्य में युग क्या करवट लेगा उसको वे पहले से ही भली प्रकार जान लेते हैं, इसलिए उनका कदम संयम की साधना करते हुए समयानुकूल आगे बढ़ता जा रहा है।
तेरापंथ शासन की हमेशा से यह मर्यादा रही है कि वर्तमान आचार्य अपने शासनकाल में युवराज की नियुक्ति करते हैं, जो चतुर्विध संघ को मान्य होती है। इस नियुक्ति में किसी का हस्तक्षेप नहीं होता। नियुक्ति की पूरी जिम्मेवारी वर्तमान आचार्य की ही रहती है। अतः आचार्य श्री का यह गुरुत्तर दायित्व होता है कि वे अपने पीछे होने वाले आचार्य का नाम घोषित करे । आचार्य तुलसी आगम दृष्टि के महान् धनी हैं । माघ शुक्ला सप्तमी को मर्यादा-महोत्सव के अवसर पर आचार्यप्रवर ने अपनी जिम्मेवारी को ध्यान में रखते हुए मुनि श्री नथमलजी को युवाचार्य घोषित कर तेरापंथ संघ को ही नहीं अन्य धर्मावलम्बियों एवं भारत के चिंतकों तथा बुद्धिजीवियों को एक महान् देन दी है। इस घोषणा से चारों ओर उल्लास ही उल्लास है । युवाचार्य महाराज सबके जाने पहचाने हैं । शायद कई व्यक्तियों ने उनका साक्षात्कार नहीं भी किया हो, परन्तु उनके कर्तृत्व से सभी परिचित हैं। मुनि श्री की दीक्षा स्वर्गीय प्रातःस्मरणीय पूज्य कालूगणीजी के द्वारा हुई थी। परन्तु मुनि श्री दीक्षा के बाद से निरन्तर आचार्य श्री तुलसी (जब बे सामान्य साधु थे) के सान्निध्य में रहे हैं । अतः मुनि श्री ने जो भी विकास किया है, वह सब आचार्य श्री तुलसी की देन है।
खण्ड ४, अंक ७-८
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