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________________ संस्कृति और सभ्यता के पालन का ढिंढोरा पीटते हुए, भौतिक वस्तुओं के उपभोग के क्षणिक सुखों में लीन हो जाते हैं। ये क्षणिक सुख मानव को शान्ति और संतोष प्रदान न कर जीवन में एक विचित्र अशान्ति भर देते हैं। आज देखते हैं कि बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त डाक्टरों, प्रोफेसरों, इन्जीनियरों आदि में भी अशान्ति और निराशा व्याप्त है। भौतिकता और काम-भोगों की कामना वाले इस चमक-दमक के युग में मनुष्य खोखली, अस्थायी, गर्वमद से भरी झूठी इज्जत के चक्र में लगे रहते हैं। इसका कारण आज के मानव का आध्यात्मिक एवं आत्मिक ज्ञान से विहीन होना है । आत्मा को आध्यात्मिकता से ही निरोगी बनाया जा सकता है। अपने प्राचीन धर्मशास्त्रों, आचार-विचार के साहित्यों में निर्दिष्ट आध्यात्मिकता और नैतिकता को जीवन का अंग बनाकर परम शान्ति प्राप्त की जा सकती है। मनुष्य को जीवन में आध्यात्मिकता और नैतिकता के साथ-साथ निष्काम भाव से युक्त पुरुषार्थ की भी अत्याधिक आवश्यकता है। उत्साह से युक्त पुरुषार्थी बनकर परिवार, राष्ट्र और समाज का कल्याण किया जा सकता है। बौद्धग्रन्थ धम्मपद' में भी उपदेशित किया गया है-"उत्साह अमृतत्व का मार्ग है, आलस्य मृत्यु का मार्ग है। आलस्य रहित व्यक्ति मृत्यु-दण्ड को प्राप्त नहीं होते, किन्तु जो आलसी हैं, वे तो पहले से ही मरे हुए के समान हैं।" भूत-भविष्य की चिन्ता किये बिना उत्साह से पुरुषार्थ करना ही मानव धर्म है। बौद्ध "मुगपक्ख जातक"४ की गाथा में कहा गया है कि भविष्य सम्बन्धी संकल्प-विकल्प उठाने वाला, भूत की चिन्ता करने वाला मूर्ख व्यक्ति कटे हुए बांसके समान सूखता रहता है। ___ भौतिक युग का यह मानव अपने स्वार्थों में इतना अन्धा हो गया है कि उसे अपने अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है तथा अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु कभी धर्म, कभी जाति, कभी भाषा के नाम पर लड़ता रहता है। क्या लड़ने के लिए ही मनुष्य का जन्म हुआ है ? मनुष्य यदि किसी के लिए फूलों को जुटाने में अक्षम है तो दूसरों के मार्ग में उसे कांटे बिछाने का अधिकार कहां से मिला है। यदि किसी को अमृत नहीं पिला सकते हैं, तो जहर भी उसके लिए नहीं जुटाना चाहिए । किसी के जीवन को चन्दन से सुगन्धित नहीं कर सकते हैं, तो उसके जीवन में गन्दगी भी नहीं भरनी चाहिये। दूसरों का अहित सोचने वाला एक दिन स्वयं ही कष्टों से घिर जाता है । मानव अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु सभी सामाजिक परम्पराओं को तोड़ने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं रखता है। नवयुवक तो स्वतन्त्र विकास का बहाना बनाकर सामाजिक व्यवस्थाओं को तोड़ने में अपना परम कर्तव्य ही समझने लगे हैं। परन्तु सामाजिक परम्पराओं का निर्वाह करते हुए, परकल्याण को जीवन का उद्देश्य बनाकर, धर्मयुक्त, उत्साहपूर्ण, स्व-इच्छाओं पर नियंत्रण करते हुए, परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान देने वाले जीवन का निर्वाह करना चाहिये । यौवन में उन्मुक्त न होकर, विवेक और बुद्धि से सामान्य कठिनाइयों का निवारण कर, कुप्रवृत्तियों का परित्याग कर एक आदर्श स्थापित करना चाहिए। - क्रोध, मान, मद, राग-द्वेष, हिंसा, सुरासेवन आदि विनाशक बुराइयों का परित्याग अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह महाव्रतों को जीवन में धारण कर मधुर-भाषी, ४६६ तुलसी-प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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