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विनम्र, उदार, संयमी, पराक्रमी होकर उत्साहपूर्वक जीवन-निर्वाह परम सुख की ओर ले जाने वाला मार्ग है । बाहरी सजावट, खोखले आडम्बर, निरर्थक कर्मकाण्ड सदैव ही पतन की ओर ले जाते हैं । शुद्ध आचरण से सर्वस्व प्राप्त किया जा सकता है, इससे संस्कृति तथा सभ्यता की सुरक्षा की जा सकती है। विशुद्ध भावनायें ही यशस्वी बना सकती हैं। प्रत्येक अच्छा कार्य यथा--परोपकार, त्याग और दान ही भव-भवान्तर तक साथ जाने वाले हैं। सुगन्धि बांटने से ही सुगन्धि मिलती है, धर्म, उत्साह, शुद्ध-आचरण, पराक्रम, संयम, सन्तोष, स्वात्मा का अवलोकन, परकल्याण की भावना हो तो भौतिकता के स्थान पर आध्यात्मिकता का स्थायी सूर्य नवपीढ़ी के जीवन में स्थायी शान्ति का प्रकाश भर सकता है।
बुर्जुआ पीढ़ी को भी सभी दोषों के लिए नवयुवकों को दोषी न ठहरा कर सही दिग्दर्शन, प्रेम के द्वारा नैतिक आदर्शों से युक्त समाज की स्थापना करनी चाहिए। न जाने कितने तरुण कल के गौतम, गाँधी, महावीर, चन्दनबाला, ईसामसीह, सीता, नानक और पन्नाधाय बनेंगे। यौवन को सही दिग्दर्शन की आवश्यकता होती है। महर्षि बाल्मीकि ने यौवन अवस्था को महान् संकट माना है। अतः तरुण वर्ग में छिपी अपार शक्ति को सही मार्ग पर ले जाकर इसी धरा पर ही स्वर्ग स्थापित किया जा सकता है। आपस में समन्वय स्थापित कर हर परिस्थिति में साम्य-भाव से सुखी रहने की जीवन-साधना ही हमारा परम लक्ष्य हो, तभी परिवार, समाज और राष्ट्र का कल्याण हो सकेगा। १. माणुसत्तं भवे मूलं, उत्तरज्झयणाणि (उत्तराध्ययन सूत्र) सं०-मुनि नथमल, संस्करण १९६७, कलकत्ता,
७/१६ । २. अचियत्त कुलं न पविसे, चियत्तं पविसे कुलं ।
दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि स०-मुनि नथमल, कलकत्ता, ५/१७ । ३. अप्पमादो अमतपदं, पमादो मच्चुनो पदं ।
अप्पमत्ता न मीयन्ति, ये पमत्ता यथा मता ॥
धम्मपद, सम्पादक एवं अनुवादक-सत्य प्रकाश शर्मा, संस्करण १९७२, मेरठ, २/१ । ४. जातक षष्ठम्, सम्पादक वी० फॉसबल, संस्करण १६६० लन्दन, गा० ६० पृ०२५।
खण्ड ४, अंक ७-८
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