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________________ पुस्तकारूढ़ किया गया। परम्परा-भेद, श्रुति-भेद और लिपि-भेद आदि कारणों से एक ही आगम की भिन्न-भिन्न प्रतियों में मूल पाठ के शब्दों, पदों और वाक्यों में भिन्नता प्राप्त होती है । कौन-सा पाठ सही है और कौन-सा आरोपित ? इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं मिलता । अतः आगम-अध्येताओं के सामने एक बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है। आचार्यश्री ने लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व आगमों के सुव्यस्थित और प्रामाणिक सम्पादन का संकल्प किया। संकल्प के अनुसार काम शुरू हुआ। पच्चीस-तीस साधु-साध्वियों की एक टीम जुट गई । प्रारम्भिक वर्षों में अनुभव और साधन सामग्री की कमी के कारण जो काम हुआ, वह सन्तोषजनक नहीं था, किन्तु ज्यों-ज्यों काम करने का अनुभव बढ़ा, सामग्री सुलभ हुई, सम्पादित कार्य पर विद्वानों की अनुकूल प्रतिक्रिया हुई तो सम्पादन-कार्य को और अधिक व्यापक और वैज्ञानिक पद्धति से करने का निर्णय ले लिया गया। आचार्यश्री तुलसी के सफल निर्देशन में युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ एक प्रमुख सम्पादक की भूमिका निभाते हुए आगम-कार्य को सतत आगे बढ़ा रहे हैं । प्रायः आगमों का मूल पाठ संशोधन का काम परिसम्पन्नता पर है । इसमें किसी प्रति-विशेष को प्रामाणिक न मानकर उपलब्ध सब प्रतियों का उपयोग किया गया है। चूणि, भाष्य, नियुक्ति, टीका आदि आगमों के व्याख्यात्मक साहित्य में उद्ध त पाठों को भी यथावश्यक काम में लिया गया है । अनेक पाठों की उपलब्धि में एक पाठ मूल में रखकर शेष पाठों को पाठान्तर में रख दिया गया है। आवश्यकता के अनुसार पाठ-टिप्पण भी दे दिए गए हैं। हिन्दी अनुवाद टिप्पण और समीक्षात्मक अध्ययन, लेखन का काम चल रहा है । आगम-सम्पादन का यह कार्य आचार्यश्री की अपूर्व देन है, जो युग-युग तक अविस्मरणीय रहेगी। महिला-जागरण कुछ दशक पूर्व तक राजस्थान की महिलाओं को अपने अस्तित्व का बोध नहीं था। वे अपने परिवार या समाज में अर्धांगिनी की भूमिका निभाते हुए भी उपेक्षित और प्रताड़ित रहती थी। उपेक्षा और प्रताड़ना का वह सिलसिला आज समाप्त हो गया हो, यह बात नहीं है । फिर भी नारी चेतना के संभूयमान जागरण से अतीत की स्थितियों में काफी बदलाव आ गया है । एक समय था जब स्त्रियाँ शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ी हुई थीं। सामाजिक, आथिक या राजनैतिक गतिविधियों में उनका प्रवेश नहीं था। उनमें स्वतन्त्र चिन्तन की क्षमता विकसित नहीं थी। समाज की रूढ़ और अर्थहीन परम्पराओं को वे अपने जीवन का शृंगार मानकर चलती थीं। किसी भी कुरूढ़ि को तोड़ने का साहस उनमें नहीं था । महिलाएँ स्वयं ही महिला समाज की प्रगति में बाधक बनकर अभिशापों का भार ढो रहीं थीं। समाज में विधवा स्त्रियों की स्थिति और अधिक दयनीय थी। वर्षों तक उन्हें मकान के एक कोने में बैठकर जावन-यापन करना पड़ता था। उनकी वेशभूषा लाँछित होती थी और किसी भी मांगलिक कार्य में उनकी उपस्थिति अशुभ मानी जाती थी। पग-पग पर अपमान, प्रताड़नाएँ, विषमव्यवहार तथा शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ। विकास की सारी संभावनाएँ वहाँ लुप्त थीं। आचार्यश्री ने महिला-समाज की चेतना को जागृत किया। उसे अपने अस्तित्व का ४२६ तुलसी-प्रज्ञा
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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