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नयी कसौटी : नया दायित्व *
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ
आचार्यवर ! आप बहुत शक्तिशाली हैं । आप में असीम शक्ति है । आपको राहत लेने की भी जरूरत नहीं और आपको कोई राहत दे सके, यह भी एक चिन्तनीय प्रश्न है । किन्तु आज आप स्वयं भारी हैं, गुरु हैं पर स्वयं राहत लेना भी नहीं चाहते और दूसरे को भारी बना देना चाहते हैं । यह दोनों बातें बहुत ही अजीब-सी हैं । मेरा सारा जीवन मेरे सामने चित्रपट की भाँति अंकित है । मैं जिस दिन दीक्षित होकर आया, पूज्य आचार्य कालूगणी जी ने कहा तुम मुनि तुलसी के पास जाओ। वहीं तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा होगी। मैं चला गया । उनके पास रहा। कैसे रहा, यह आपको बताऊ' तो शायद नहीं भी मानें । जानने वाले जानते हैं, जानने वाले भी बैठे हैं, जिन्होंने हमारे बचपन को देखा है । साक्षी हैं, जो जानते हैं । मैं आपको नहीं कह सकता कि आचार्य तुलसी के प्रति समर्पित हुआ, लोग कहते हैं ऐसा । किन्तु मैं इस बात को नहीं मानता । जहाँ अद्वैत लगता हो, वहाँ समर्पण की बात ही कैसे हो सकती है ? मैंने देखा, अनुभव किया, कोई ऐसा अज्ञात संस्कार या, जिसे मैं स्वयं नहीं समझता । एक घटना मैं आपको बताऊं ।
पाली की बात है । पूज्य कालूगणी विराज रहे थे । किसी कारणवश मैं कोई पाठ याद नहीं कर सका। मुनि तुलसी कुछ नाराज हो गये । यह मेरे लिए सबसे बड़ा दण्ड था । प्रतिक्रमण के बाद मैं गया और पैर
यह कभी मान्य नहीं था । बहुत कठिन समस्या थी । पकड़कर बैठ गया । इतने समय तक बैठा रहा कि लगभग पूरा पहर बीत गया । न ये बोले और न मैं बोला । सोने का समय आया । उठकर चले । आप कल्पना कर सकते हैं कि यह समर्पण नहीं होता, यह कोई अद्वैत ही हो सकता है । आचार्यवर को लाडनूं रहना पड़ा, किसी कारणवश । मैं आ गया छापर पूज्य कालूगणी के साथ । मेरा तो मन नहीं लगता था, पर मुझे लगता था मन आचार्यवर का भी नहीं लगता था । कुछ साधु आए, सुखलाल जी स्वामी, अमोलकचन्द जी, प्रार्थना की। मुझे भेजा गया । मैं वहाँ पहुचा । सब साधु गोचरी गये हुए थे । केवल मैं बैठा था, आपकी उपासना में । आपने कहा- - क्या तुम भी मेरे जैसे बनोगे ? मैंने कहा - आप बनायेंगे तो बन जाऊंगा । नहीं बनायेंगे तो नहीं बनूंगा ।
मैं मानता हूँ कि मेरे जैसा निश्चिन्त व्यक्ति बहुत कम हो । मैंने अपनी कोई चिन्ता नहीं की । कभी नहीं की और करने की मुझे जरूरत नहीं । जब मेरे इतने बड़े चिन्ताकार वाचार्य श्री द्वारा उत्तराधिकारी - पद ग्रहण के पश्चात् प्रदत्त वक्तव्य । खण्ड ४, अंक ७-८
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