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का आशीर्वाद मेरे माथे पर है, तो मुझे करने की कोई जरूरत नहीं होगी। आप देखें, आज का साधु-साध्वी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता होगा कि पछेवड़ी ओढनी है, कब ओढ़नी है और कब सिलवानी है साध्वियों से । मुझे कोई पता नहीं होता। वस यन्त्रवत् होता है तो काम हो जाता है और नहीं होता तो चलता रहता है । मुझे कभी चिन्ता नहीं होती। इतनी निश्चिन्तता का जीवन मैंने जीया । जब कोई आचार्य बनता है, प्रसन्नता होती है । मैं यह सब कहता हूं। आचार्य तुलसी जब आचार्य बने तो सबको बहुत प्रसन्नता हुई, पर मुझे बहुत प्रसन्नता नहीं हुई । इसलिए नहीं हुई कि मैंने सोचा-जहाँ मैं रहता था, मेरे सारे जीवन का सम्बन्ध था, अब नहीं रहेगा। आचार्य श्री तुलसी पहले तो मेरे थे और अब सबके बन गये तो मैं बहुत कट गया।
- मैं अपना सौभाग्य मानता है। आचार्यवर ने मुझ पर एक नया दायित्व सौंपा और कसौटियाँ तो मेरी बहुत होती रहीं हैं। समय-समय पर अनेक परीक्षाएं हुई हैं। पर आज सबसे बड़ी परीक्षा और कसौटी इन्होंने करनी चाही है। आज तक आचार्यवर ने मुझे जो भी काम सौंपा, मैं उसमें शत-प्रतिशत सफल हुआ हूं। मैं अपने आत्म-विश्वास के साथ आचार्यवर के चरणों में यह प्रार्थना उपस्थित करता हूँ कि आपने जो काम सौंपा है, आपके आशीर्वाद से यह भी शत-प्रतिशत सफल होगा, इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है।
परम पूज्य आचार्य भिक्षु और आचार्य भिक्षु की समूची परम्परा में आचार्य कालूगणी तक सभी आचार्यों की जो एक महान् परम्परा और जिस परम्परा को आचार्यवर इतने लम्बे समय तक एक प्रगति के साथ जिस प्रकार अग्रसर कर रहे हैं, उसी कड़ी में मुझे जोड़कर और प्रगति का भागीदार मुझे बनाया है। मैं कृतज्ञता जैसे छोटे शब्द का प्रयोग करना नहीं चाहता। आचार्यवर ने अनन्त उपकार से मुझे उपकृत बना दिया है कि मैं उसके लिए शायद कोई नया शब्द गढूं, यह बात बहुत छोटी है। मैं अनुभव करता हूँ कि आचार्य वर का अनुशासन कठोर भी था और कोमल भी था। मेरे सभी सहपाठियों मुनि दुलीचन्द जी, मनि बधमल्ल जी, मुनि जंवरीमल जी आदि-आदि सभी दोनों प्रकार के अनुशासन से गुजरे हैं। इतने कठोर अनुशासन की परम्परा से हम लोग गुजरे हैं, शायद बहुत कम लोग गुजरते होंगे। एक बार मैं और मुनि बुधमल्ल जी पूज्य कालूगणी के पास गये । प्रार्थना की-गुरुदेव ! मुनि तुलसी हमें पढ़ाते हैं, सब कुछ करते हैं, पर बड़ा कठोर अनुशासन रखते हैं। हमने शिकायत की। उन्होंने कहा- तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। हम दोनों बैठ गये । पूज्य कालूगणी ने कहा काजी जी पढ़ा रहे थे। बहुत सारे छात्र थे। बादशाह का लड़का भी था। परीक्षा का समय आया । सब छात्र घर जा रहे थे। बाजार से गुजरे। काजी ने पाँच-दस सेर गेहूँ तुलवाये, एक पोटली बाँधी और बादशाह के शाहजादे के कन्धे पर रख दिये । परीक्षा हुई। परीक्षा में शाहजादा उत्तीर्ण हुआ। काजी का यह व्यवहार बादशाह को अच्छा नहीं लगा, शाहजादे को भी अच्छा नहीं लगा। बादशाह बोला-यह आपने अच्छा नहीं किया। काजी ने कहा -- मैंने बहुत सोच-समझकर किया है। यह बादशाह बनेगा। आपका उत्तराधिकारी होगा तो यह दूसरे को दण्ड देगा। पता चल जाए कि भार उठाने में कितनी कठिनाई होती है। इसलिये मैंने यह काम किया है। कालूगणी ने कहा- गुरु और
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तुलसी प्रज्ञा